हिन्दी का अकादमिक जगत रौरव नरक में फंसा है। नए और चुनौतीपूर्ण विषयों के प्रति रूझान घटा है।वर्तमान के प्रति हमने आंखें बंद कर हैं।शोध को दोयमदर्जे का लेखन मान लिया है।बगैर किसी अनुसंधान और गंभीर चिन्तन से रहित विवेक का ही चारों ओर जयगान हो रहा है। शोध के प्रति गंभीर उपेक्षा का ही आलम है कि शोध के प्रकाशन की कोई समुचित व्यवस्था का हमारे यहां कोई इंतजाम नहीं है। यहां तक कि प्रकाशक भी शोध को छापने के पैसे मांगते हैं। शोध को बेच लेते हैं किन्तु एक भी पैसा लेखक को नहीं देते। आलोचना, शोध और शिक्षण के बीच विराट अंतराल पैदा हो गया है। हमारे शोधार्थी जो अनुसंधान करते हैं उसे आलोचक और इतिहासकार कभी अपने लेखन और विमर्श का हिस्सा नहीं बनाते। स्थिति यहां तक बदतर हो गयी है कि प्रतिष्ठित समीक्षक कभी किसी अनुसंधान का अपने लेखन में उल्लेख तक नहीं करते।नामवर सिंह से लेकर परमानंद श्रीवास्तव तक हिन्दी के चर्चित प्राध्यापक-समीक्षकों में शोध के प्रति इस तरह के अलगाव,आलस्य और उपेक्षापूर्ण रवैयये की जड़ें हमारे आलोचना विवेक और इतिहास विवेक में गहरे छिपी हुई हैं।इसके कारणों की पड़ताल की जानी चाहिए।
हिन्दी में शोध की उपेक्षा का प्रधान कारण है खोज के प्रति एडवेंचर का अभाव,नए के प्रति अनास्था, परजीवीपन, इतिहास और आलोचना का शोध के साथ अलगाव, शिक्षकों में नए के प्रति खोज की मानसिकता का अभाव, वर्तमान समय को न जानने की प्रवृत्ति ,स्वयं को बड़ा दिखाने की प्रवृत्ति और अन्य को छोटा दिखाने की मानसिकता। इन सबसे बड़ा कारण है शिक्षक-आलोचक का यह मानना कि सब कुछ महत्वपूर्ण तो पहले वाले इतिहासकार कह गए हैं ,अब उसमें नया कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता।
रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जो लिखा है वह पत्थर की लकीर है।नामवर ने जो कहा है वह स्वर्णाक्षर में लिखे जाने योग्य है।मुक्तिबोध ने जो लिख दिया है उसे प्रणाम करके स्वीकार करो।इन सबके अलावा जो लोग लिख रहे हैं उसमें नया कुछ भी नहीं है।इस तरह की मानसिकता हमारे साहित्यिक और अकादमिक परिदृश्य के पतन की द्योतक है। सवाल किया जाना चाहिए कि रामचन्द्र शुक्ल वगैरह को पत्थर की लकीर क्यों बनाया गया , रूढि क्यों बनाया गया ,शिक्षा में इस तरह के रूढिवाद को किसने जन्म दिया ?
असल में यह एक खास किस्म का सामंतवाद है जो हिन्दी में पैदा हुआ है। इसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं। यह नए से डरता है, विचारों का जोखिम उठाने से डरता है।साहित्य सैद्धान्तिकी से डरता है।अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृध्द करने में अपनी हेटी समझता है।स्वयं दूसरों का चुराता है और उसे मौलिकता के नाम पर परोसता है।साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने पढ़ाने में इसकी एकदम दिलचस्पी नहीं है।
आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते। एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती।वे पूरी तरह अतीत के रेती के टीले में सिर गडाए बैठे हैं।
वे न तो कुछ सुनते और न कुछ देखते हैं। वे न तो कुछ सीखते और न कुछ सिखाते हैं। ऐसे ही शिक्षक-समीक्षक हमारे आराध्य बने हुए हैं।अन्नदाता हैं।नौकरी दिलाने वाले हैं। डिग्री दिलाने वाले हैं।ऐसे में हिन्दी अनुसंधान का भविष्य और वर्तमान आशाविहीन नजर आता है तो कोई आश्चर्य नहीं है।क्योंकि जिन पर हमने आशाएं टिकायी हुई हैं। वे इस लायक नहीं हैं कि किसी को आशान्वित कर सकें।
ऐसे शिक्षक-आलोचक बड़े पद हासिल कर सकते हैं। नौकरियां दिला सकते हैं। लेकिन हिन्दी को ज्ञानसंपन्न नहीं कर सकते। हिन्दी प्रोफेसरों की ज्ञान विपन्नता का ही यह दुष्परिणाम है कि आज हमारे पास हिन्दी का सुसंगत रूप में लिखा मुकम्मल इतिहास तक उपलब्ध नहीं है। कल्पना कीजिए रामचन्द्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आरंभिक कार्य न किया होता तो हम कितने गरीब होते , इन दोनों इतिहासकारों की इतिहास कृतियां हिन्दी के विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए तैयार की गई थीं।
हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय का अनुसंधान को अभी तक जरिया नहीं बना पाए है।वे पढ़ाने और बोलने को प्रथमकोटि का काम मानते हैं और शोध को दूसरे दर्जे का काम मानते हैं। वे वादानुवाद के लिए तो किसी कृति पर चर्चा करेंगे किन्तु उस कृति को इतिहास और आलोचना के इतिहास में शामिल करके विद्यार्थियों को लाभान्वित नहीं होने देते।इस सबका प्रधान कारण है हमारे हिन्दी विभागों का वर्तमान की वास्तविकता के साथ एकदम संबंध विच्छेद।
हिन्दी विभागों के शिक्षकों और विद्यार्थियों को देखकर लगता नहीं है कि ये लोग इस युग के लोग हैं।वे जिस मासूमियत और अज्ञानता के साथ वर्तमान के साथ पेश आते हैं उसके कारण सारा माहौल और भी बिगड़ा है।
विद्यार्थियों में मासूमियत और अज्ञानता को बनाए रखने में शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते।वे ज्ञान को बांटने में नहीं ज्ञान को चुराने में सिध्दहस्त हैं।
कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा नजर आता है। हिन्दी के शिक्षक भोंदू ,आरामतलब, ज्ञान-विज्ञान की चिन्ताओं से दूर और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में ही मशगूल रहते हैं। ऐसी अवस्था में हिन्दी का शोध और शिक्षा का गतिरोध कैसे खत्म होगा ?
शिक्षकों ने हिन्दी शोध के बारे में मिथ बनाए हैं और बड़े घटिया मिथ बनाए हैं, यह कहावत प्रचलन में है रिसर्च यानी चार किताब पढ़कर पांचवी किताब लिखना या फिर नकल। हमारे शिक्षकों ने कभी इस मिथ के खिलाफ मुहिम नहीं चलायी। बल्कि इस धारणा को तरह-तरह से पुष्ट करते रहते हैं। इसके विपरीत होता यह है कि यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध कर रहा है या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने या केरीकेचर बनाने में हमारे समीक्षक- शिक्षक सबसे आगे होते हैं और यह कहते हुए मिलते हैं बड़ा कचरा लिख रहे हैं।हल्का लिख रहे हैं।यानी हमारे शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है।वे यह भी कहते मिल जाते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी आ जाती है।इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं।
हिन्दी में देश में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं। आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं। हिन्दी में शोध की दशा को देखना हो तो हमें यह देखना चाहिए कि आलोचक वर्तमान के सवालों पर कितना समय खर्च कर रहे हैं। कितना लिख रहे हैं।
रामविलास शर्मा, नगेन्द्र,नामवर सिंह,विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह ,परमानन्द श्रीवास्तव,नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा , इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा , खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।
रामविलास शर्मा से लेकर नामवर सिंह तक के स्वातन्त्र्योत्तर भारत के बारे में अब तक के विवेचन से भारत कम से कम समझ में नहीं आता। हिन्दी क्षेत्र और हिन्दी साहित्य की जटिलताओं का आभास तक नहीं मिलता। हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं। हिन्दी में साहित्यिक बहसें विमर्श या संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है,जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है।
हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।परंपरा के नाम पर जो विपुल सामग्री स्वातंत्र्योत्तर दौर में रची गयी है वह भी इच्छित तरीके से। उसमें भी हमने शोध के अनुशासन का पालन नही किया है। परंपरा पर विराट सामग्री ने और कुछ किया या नहीं हम नहीं जानते किन्तु इसने हमारे हिन्दी के परजीवी शिक्षक को परंपरापूजक जरूर बना दिया है।
हम भूल ही गए कि परंपरा पर इकहिरे ढ़ंग से विचार करने से एक खास किस्म का सांस्कृतिक माहौल बनता है। जिसमें वर्तमान तो उपेक्षित होता ही है स्त्री और दलित भी उपेक्षित होते हैं। यही वजह है कि दलित और स्त्री को परंपरा से सख्त नफरत है। वे परंपरा के नाम पर किए गए किसी भी किस्म के प्रयास को स्वीकार नहीं करते। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा परंपरा का इन दोनों से सीधा अंतर्विरोध।
परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण और साधारणीकरण से काम लिया है।परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है।परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है।
परंपरा की इच्छित इमेज बनाने का सबसे अच्छा उदाहरण हैं रामविलास शर्मा का लेखन।इसमें वाद-विवाद और संवाद के लिए कोई जगह नहीं है। कुछ-कुछ यह भाव है हम बता रहे हैं और तुम मानो। मजेदार बात यह है कि परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया।परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमें बार-बार परंपरापूजक का बोध पैदा करने की कोशिश की गई। इसकी साहित्य में गंभीर प्रतिक्रिया हुई है लेखकों का एक तबका एकसिरे से परंपरा को अस्वीकार करता है। परंपरा पर बातें करना नहीं चाहता।
खासकर प्रयोगवाद,नयीकविता और आधुनिकतावादी साहित्यकार के लिए परंपरा गैर महत्व की चीज है। कहने का अर्थ है कि परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं। पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं। परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं।
दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं। तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।
परंपरा को इकहरे,एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए।परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है।यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है।
परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता।नया नहीं बनाया जा सकता।परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें।हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं नए के लक्षण हैं।नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।वर्तमान का रूप है,उसका हिस्सा है।
साहित्य के लिए परंपरा का जो अर्थ है वही अर्थ दलित साहित्य, और स्त्री साहित्य के लिए नहीं है।साहित्य की परंपरा और इतिहास के साथ दलित साहित्य और स्त्री साहित्य का सीधा अन्तर्विरोध है।यह अंतर्विरोध कैसे खत्म हो इस पर हमने कभी विचार नहीं किया।समग्रता में देखें तो परंपरा वर्चस्वशाली ताकतों का हथियार रही है। वर्चस्व स्थापित करने का माध्यम रही है।यही वजह है कि वंचितों ने हमेशा परंपरा को चुनौती दी है। उसे अस्वीकार किया है।यही स्थिति कमोबेश इतिहास की भी है।वंचितों ने इतिहास को भी चुनौती दी है। परम्परा और इतिहास के जितने भी मूल्यांकन हमारे सामने हैं वे दलित और स्त्री को सही नजरिए से देखने में मदद नहीं करते।बल्कि इसके उलट सही नजरिए से देखने में बाधा देते हैं।
वर्चस्वशाली ताकतों की सेवा में साहित्य का इतिहास तब तक सेवा करता है जब तक उसे चुनौती नहीं मिलती। आजकल जमाना बदल चुका है। बदले जमाने की हवा वर्चस्वशाली ताकतों और उनके विचारकों के लिए सिरदर्द बन गयी है। वंचितों के वैचारिक और सामाजिक दबाव का ही सुफल है कि आज आलोचना के किसी एक स्कूल के आधार पर मूल्यांकन करने की बजाय अन्तर्विषयवर्ती समीक्षा पध्दति का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग हो रहा है। हिन्दी में इस पध्दति का चलन काफी धीमी गति से हो रहा है।
हिन्दी आनुसंधान की सबसे बड़ी बाधा है उसका आलोचक और आलोचना से एकदम संबंध विच्छेद। अनुसंधान और आलोचना में किसी भी किस्म का संपर्क ,संबंध और संवाद ही नहीं है। आलोचक इस संवाद में अपनी हेटी समझता है। वह आलोचना को उत्तम कोटि का कर्म और अनुसंधान को दोयमदर्जे का कर्म मानता है। सवाल किया जाना चाहिए कि आलोचना महान कैसे हो गयी और अनुसंधान निकृष्ट कोटि का कैसे हो गया ,ये दोनों वर्गीकरण किसने किए ?
आपने विषय की मूलभूत अंतर्वस्तु को उसकी समूची विलक्षणता के साथ बोधगम्य बना दिया है। मूल्य निर्णय न देकर आलोचनात्मक ब्याख्यान अच्छा लगा। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
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