20.2.10

समय

चटखी कली पर
गून्ज उपवन में
अटकी रही,
क्षण की एक बून्द भर
समय के मेघ पर
लटकी रही ।
घडी की सुइयाँ
इस बीच भी मगर
भागती रहीं,
सूरज की किरणें
धरती के दरवाजे
जागतीं रहीं ।

कविता का भ्रूण
गर्भ में ही पडा
बस टीसता रहा,
ह्र्दय का पत्थर
पिघला तो नहीं
पसीजता रहा ।
सपनों की ओस
यादों के पत्तॉं पर
पडती रही,
आशा की बदली
निर्जन आकाश में
उमडती रही ।

समय निठुर निश्चल सा
अपनी अकड में
हिला तक नहीं,
वर्तमान भूत से,
या फिर भविष्य से
मिला तक नहीं।

4 comments:

  1. समय निठुर निश्चल सा
    अपनी अकड में
    हिला तक नहीं,
    वर्तमान भूत से,
    या फिर भविष्य से
    मिला तक नहीं।
    ......... Sundar bhavpurn rachna ke liye badhai...

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  2. "सुन्दर रचना......."
    प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com

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  3. प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद्.
    पंकज

    http://uneven-pebbles.blogspot.com/

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