22.2.10

वैश्विक गिरोह्

वैश्विक होते संसार में

हर ओर अतृप्त इच्छा-लालसा-कुंठाओं की

जलती लाशों से उठती लपलपाती झंझार से

भागता हूँ विशून्य में

थकहार ढूँढ़ता हूँ

पेशल रात को

उसकी

अंकोर में सिर रख सो जाना चाहता हूँ

उमगती भोर तक;

कि तभी

ठकमुर्री से देखता हूँ

दिगंत-व्याप्त-रात की लोनाई लीलती

ठसक-भरी शबल रोशनियों में

विलीन होते

तारों और चंद्रचाप को,

और सुनकर

चित्तविप्लव में डूबे

सारल्यता को छलते

जनसमूहों के विलज्ज ठहाके

भागता हूँ

उनकी घूरती अपलक आखों से दूर

फ़क़त रात की तलाश में

और छलक आते हैं आँसू

अभी भी झपकता हूँ मैं पलकें कि तभी

खेंच लेती है कोई अदृश्य शक्ति

वैवर्त-सा घूमता हूँ अपनी ही धुरी में

झड़ जाती हैं पलकें

और शामिल हो जाती मैं भी

अपलक आँखों के गिरोह में ।

प्रणव सक्सेना

Amitraghat.blogspot.com

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