13.3.10

हिन्दी के लेखक संगठनों की दिमागी गुलामी का तानाबाना-2-

          जब भी किसी चीज को सौंदर्यबोधीय चरम पर पहुँचा दिया जाता है उसे हम भूल जाते हैं। अब हमें विभीषिका की कम उसके कलात्मक सौंदर्यबोध की ज्यादा याद आती है। अब द्वितीय विश्वयुध्द की तबाही की नहीं उसकी फिल्मी प्रस्तुतियों, टीवी प्रस्तुतियों के सौंदर्य में मजा आता है। सौंदर्यबोधीय रूपान्तरण त्रासदी को आनंद में तब्दील कर देता है। यह ऐसा आनंद है जो निष्क्रिय व्यक्ति का आनंद है। इस आनंद में न तो विरेचन है और न सक्रिय करने की क्षमता है। यह निज का विलोम है। फलत: जिस चीज से नफरत करनी चाहिए उससे प्यार करने लगते हैं। द्वितीय विश्वयुध्द की विभीषिका को प्रभावित देशों में कोई भी नागरिक महसूस नहीं करता। उनके लिए द्वितीय विश्वयुध्द गुजरे जमाने की चीज हो गई है। फिल्मी कलात्मक अभिव्यक्ति और आनंद का रूप है। कहने का तात्पर्य यह है कि इलैक्ट्रोनिक युग में लेखक जो कुछ भी रचता है रचने के बाद उसका स्वत: ही विलोम पैदा होता है।
इलैक्ट्रोनिक मीडिया के चहुँमुखी विकास ने विश्व चेतना से त्रासदी और उसके भयावह बोध को खत्म करने में केन्द्रीय भूमिका अदा की है। यही हाल भारत-विभाजन का हुआ। भारत-विभाजन को पहले फिल्मी और बाद में धारावाहिक बनाया। यह एक तरह से यथार्थ के संप्रेषण और अर्थ का हाइपररीयल में रूपान्तरण है। हाइपररीयल यथार्थ का चरम है। यथार्थ से सुंदर यथार्थ है।
नयी परिस्थितियों में साहित्य और लेखक संगठन के स्तर पर संचार के सभी चर्चाएं 'क्लीचे' की शक्ल में होती रही हैं। प्रगतिशील,जनवादी,क्रांतिकारी, प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष आदि पदबंधों का प्रयोग मूलत: 'क्लीचे' के रूप में हुआ है। इससे लेखक संगठनों को व्यापक ऑडिएंस मिली । इन पदबंधों का व्यापक अनुकरण हुआ। सरलीकरण हुआ। जब भी कोई पदबंध 'क्लीचे' बन जाता है तो अपना मूल अर्थ खो देता है। अब वह सिर्फ प्रतीक मात्र,कथन की रूढ़ि मात्र बनकर रह जाता है। आधुनिकता और रैनेसां के गर्भ से पैदा हुई तमाम धारणाओं का क्रमश: इसी तरह लोप हुआ है। लोप से तात्पर्य है इन धारणाओं का अर्थहीन बन जाना, प्रभावहीन बन जाना। आम लोगों के द्वारा इनके अर्थ का अस्वीकार। इन पदबंधों का 'क्लीचे' के रूप में प्रसार इस तथ्य की सूचना है कि ये पदबंध अपने मूल अर्थ को खो चुके हैं। जब भी कोई चीज 'क्लीचे' में तब्दील हो जाती है तो अपने मूल अर्थ को नष्ट कर देती है। 'क्लीचे' बनने के बाद ये पदबंध प्रतीकात्मक रेडीमेड मासकल्चर में तब्दील हो गए।
जब भी कोई पदबंध अथवा अवधारणा 'क्लीचे' बन जाती है अथवा रूढ़ि बन जाती है तो उसकी विनिमय की भूमिका भी बदल जाती है। इलैक्ट्रोनिक युग में इनका मूल्यबोध नहीं बल्कि विनिमय मूल्य संप्रेषित होता है। इनके प्रचार करने से मुद्रा मिलती है। सत्ताा सुख और सस्तासुख मिलता है। सत्ताा को रूढ़ियां पसंद हैं। सतहीपन पसंद है।रूढ़ियां पसंद हैं। पूंजीवादी सत्ताा हो या समाजवादी सत्ताा हो सबको अपने प्रचार के लिए रूढियों की जरूरत होती है। बगैर रूढियों के कोई भी सत्ताा अपनी विचारधारा का प्रचार नहीं करती। आधुनिककाल में खासकर आजादी के बाद उपरोक्त अवधारणाओं का रूढ़ि के दौर पर विकास हुआ है। सर्जनात्मक विकास कम हुआ है।
आधुनिक काल में लेखक संगठन भी एक रूढ़ि है। इसकी साहित्यिक आधुनिक रीतिवाद के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका रही है। हमारे प्रगतिशील दोस्तों को अपने नाम के साथ रीतिवाद सुनकर परेशानी और गुस्सा आ सकता है। किंतु सच यही है कि जब भी आप किसी को सम्बोधित होकर लिखते हैं अथवा सुनाते हैं तो व्यवहार में रीतिवाद का ही अनुसरण करते हैं। रीतिवाद की साहित्यिक विशेषता थी कि लेखक जानता था कि उसका श्रोता कौन है। लेखक संगठन के प्रचारक जानते हैं उनका श्रोता या पाठक कौन है ? वे किसे सम्बोधित कर रहे हैं।
मध्यकालीन रीतिवाद की दूसरी बड़ी विशेषता है पदबंधों के सुनिश्चित अर्थ और उनका अहर्निश प्रचार। लेखक संगठनों के द्वारा आधुनिक अवधारणाओं की जितनी बड़ी तादाद में टीकाएं लिखी गयीं उस तरह की प्रवृत्तिा सिर्फ मध्यकाल में नजर आती है। लेखक संगठनों और उनके प्रकाशनों पर एक नजर डालने पर पता चलता है कि ये आधुनिक युग के टीकाकार हैं।
हिन्दी की आधुनिक तर्कप्रणाली भी तकरीबन वही है जो मध्यकाल में थी। मध्यकाल में जो कहा जाता था उसे मानने पर जोर था मजेदार बात यह है कि लेखक मानते भी थे। आधुनिक काल में लेखक संगठनों के द्वारा जो कुछ भी कहा जाता है उसे लेखकों का एक तबका अभी भी मानता है किंतु जो लेखक मध्यकालीन रूढ़ियों से मुक्त हो चुके हैं वे नहीं मानते। यह साहित्यिक रूढ़िवाद ही है कि यदि कोई आलोचक कहे कि फलां लेखक की रचना महान है तो हठात यह प्रचार होने लगता है कि फलां-फलां आलोचक ने कहा है फलत: रचना महान है,रचनाकार महान है। यही स्थिति लेखक संगठनों की भी होती है। वे बताने लगे हैं कि कौन लेखक है और कौन लेखक नहीं है। लेखक संगठन मूलत: 'प्रायोजक' मात्र बनकर रह गए हैं।
लेखक संगठनों का किसी भी अवधारणा से रूढिबध्द ढंग से जुड़े रहना आधुनिक रीतिवाद है। आधुनिक रीतिवाद का आदर्श उदाहरण है 'जनवाद' पदबंध का लेखक संगठनों के द्वारा प्रचार-प्रसार और स्वयं लेखक संगठनों में लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली का अभाव। यानी प्रचार के लिए जनवाद ठीक है,व्यवहार में सामंतवाद ठीक है। अलोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली के एक नहीं अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो जनवादी लेखक संघ के मेरे निजी अनुभव का हिस्सा हैं। किंतु उदाहरण यहां अप्रासंगिक हैं। बुनियादी समस्या है लेखक संगठनों में व्याप्त रीतिवाद की।
रीतिवाद के कारण ही लेखक संगठन किसी भी मौलिक प्रश्न को उठाने में असमर्थ रहे हैं। वे उन प्रश्नों पर बहस करते रहे हैं जो दूसरों ने उठाए हैं। जिस तरह मध्यकालीन रीतिवाद के दौरान कभी लेखक के अधिकारों पर बातें नहीं हुईं। ठीक उसी तरह आजादी के बाद लेखक संगठनों ने देश में लेखकों के अधिकारों को लेकर कोई मौलिक आन्दोलन नहीं चलाया। लेखकों को उनके अधिकारों की चेतना से लैस करने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया।


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