6.3.10

याद आती हो तुम

कभी तो सुबह जैसी ऊगती हो,
कभी फिर शाम जैसी
फैल जाती हो तुम ।

मेरी आवा़ज़ में ही गूंजती हो,
मेरा ही नाम बनकर
याद आती हो तुम ।

क़हीं नेपथ्य में छिपकर दिवस भर,
ढले दिन साँस बनकर
चीर जाती हो तुम ।

तुम्हारी गन्ध से सपने महकते
ठगा आश्चर्य से मैं,
मुस्कराती हो तुम ।

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