9.3.10

अनंतरुपा स्त्री का भारतीय वैभव

         स्त्री का शरीर सबसे मूल्यवान् और विचारणीय मुद्दा है। स्त्री का शरीर हो तो सौन्दर्य,आनंद ,मनोरंजन ,राजनीति और सत्ता के सभी विमर्श अपंग हो जाएं।वे लोगभी स्त्री का शरीर चाहते हैं और उसके आधार पर विमर्श रच रहे हैं जो प्रतयक्षत: स्त्री के शरीर के बारे में संतई दिखाते रहते हैं। स्त्री विमर्श में स्त्री का शरीर सबसे प्रमुख तत्व है।
         हेलिनी सिकसाउस ने लिखा है कि सद्यजात बच्ची स्त्री का शरीर अनंत संभावनाओं से भरा है। उसका कोई अंत नहीं है। उसके शारीरिक अंगों की एक सीमा भी है। 'अंतहीन स्त्री शरीर' की सैध्दान्तिकी को उसने स्त्री जीवन के विभिन्न विषयों तक विस्तार दिया और निष्कर्ष रूप में कहा कि स्त्री के विषय की कोई सीमा नहीं होती। जिस तरह स्त्री के शरीर की अनंत संभावनाएं होती हैं। वैसे ही स्त्री विषय और स्त्री विमर्श की कोई सीमा नहीं है। स्त्री अनंता रूपा है। उसके पास अनंत शक्ति हैं। अनंत संभावनाएं हैं।
       स्त्री शरीर के उपभोग, उपयोग और प्रसार को उसके संगठन,सामाजिक पुनर्रूत्पादन की क्षमता के साथ  जोड़कर नहीं देखा गया। यह संभव नहीं है कि स्त्री के किसी भी पहलू पर विचार-विमर्श उसके शरीर से काटकर किया जाए। चाहे स्त्री के वजन का सवाल हो, नग्नता या पोर्न के सवाल हों,फैशन के सवाल हों या स्त्री सशक्तिकरण के सवाल हों या प्रजनन से जुड़े प्रश्न हों,सभी के केन्द्र में स्त्री का शरीर है। स्त्री का शरीर उसकी शक्ति हैं। सामाजिक जीवन की कुंजी है।

     जब स्त्री के शरीर को उसके मुद्दों के साथ जोड़ा जाएगा तो स्त्रीवादी नजरिए से ही जोड़ना होगा। स्त्रीवावादी नजरिए से स्त्री के शरीर को रूपान्तरित करने की नहीं पुन: अर्जित करने की कोशिश की जानी चाहिए। हमें मनुष्य के नाते अपने समस्त चिन्तन और व्यवहार को स्त्री शरीर के संदर्भ में नए सिरे से  परिभाषित करना चाहिए।
            स्त्री के बारे में हमारा अब तक का  चिन्तन समूचा संदर्भ पुरूष केन्द्रित रहा है। हमने सीताराम, राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण आदि के जरिए जितना भी चिन्तन विकसित किया है वह पुरूष केन्द्रित या पुरूष निर्भर धारणाओं पर आश्रित है। स्त्रीवादी देशज विमर्श तैयार करने के लिए हमें स्त्री केन्द्रित, देवी चरित्रों के विमर्श को केन्द्र में लाना होगा।खासकर तंत्र और शक्ति की उपासना में प्रचलित देवियों के संदर्भ को ध्यान में रखकर विमर्श तैयार करना होगा।
     पुंसवादी विमर्श का सबसे बड़ा आधार धर्म और पौराणिक आख्यान रहे हैं। धर्म और पौराणिक आख्यानों के आधार पर हमने स्त्री को निर्भर या मातहत बनाने वाले विमर्श की रचना की है। हमने स्त्री संदर्भ में स्वतंत्र रूप से स्त्री को कभी देखने की कोशिश ही नहीं की। भारतीय परंपरा के पुंसवादी धार्मिक संदर्भ के कारण जितने भी देवता और उनके साथ देवियां उभरकर सामने आयी हैं वे सब पुंसवादी विचारधारा की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। उनके साथ हमारा संपर्क ,संबंध जितना गहरा होत जाता है वैचारिक तौर पर पुंसवाद की हम उतनी ही गिरफ्त में कैद होते जाते हैं।
        स्त्रीवादी विमर्श का परंपरा के साथ तब ही संबंध बनेगा जब हम शक्ति के देवी प्रतीकों और उनके कर्मों को सामने लाएं। धार्मिक प्रतीकों का हमारे कानून, साहित्य, राजनीति,विज्ञान,सामाजिक मूल्यबोध,संस्कार आदि पर गहरा असर होता है। यही वजह है कि पुंसवादी पैराडाइम बदलने के लिए धर्म के मर्दवादी प्रतीक संसार की जगह स्त्री के शक्ति सम्प्रदाय और तंत्र के देवी सम्प्रदाय के प्रतीकों के विमर्श को सामने लाना होगा।  मर्दवादी प्रतीक व्यवस्था के प्रभाववश ही हमारे चिन्तन और सृजन में स्त्री कभी अपने निजी संदर्भ में सामने नहीं आती अपितु स्त्री का सारा संसार किसी देवता के सहयोगी,अनुवर्ती के रूप में सामने आता है।

     देवता के साथ देवी की प्रस्तुति और उससे जुड़े कथानक की संरचना पर गौर करें तो पाएंगे कि देवता की तुलना में देवी के पास कोई अधिकार ही नहीं हैं अथवा कम अधिकार हैं। अमूमन कर्ता के रूप में देवता ही प्रमुख रहा है। देवता का कर्ता और देवी का अनुगामिनी वाला रूप हमारी सामाजिक चेतना और लेखक के विश्व दृष्टिकोण के निर्माण का सबसे बड़ा स्रोत रहा है।
    हमने कभी देवता के संदर्भ के बाहर जाकर साहित्य सृजन या मूल्य निर्माण के बारे में सोचा ही नहीं है। जबकि भारतीय परंपरा में शक्ति की परंपरा रही है। खासकर ,तंत्र में महात्रिपुरसुन्दरी, या अन्य देवियों की परंपरा का लंबा इतिहास है जिसकी ओर हमने कभी ध्यान नहीं दिया। हमारे पौराणिक आख्यानों में जब किसी देवी-देवता की कहानी सामने आती है तो उसमें देवी हमेशा निष्क्रिय होती है। देवता सक्रिय होता है।
     राम और कृष्ण की कहानी में जिस पर हजारों रचनाएं रची गयी हैं इनमें सीता या राधा अथवा अन्य स्त्री चरित्र पेसिव रूप में सामने आते हैं। ऐसी स्थिति में सीता और राधा के जरिए स्त्री विमर्श का ढ़ांचा नहीं बनाया जा सकता। क्योंकि राधा और सीता कर्ता के रूप में सामने नहीं आतीं।
        स्त्री चरित्र वह आदर्श हो सकता है जो स्वयं कर्ता हो,फैसले ले, अपने को अभिव्यक्त करे। चूंकि देवियां कर्ता नहीं हैं अत: उनके पास अपनी भाषा भी नहीं है वे मर्द की भाषा में बोलती हैं। यही वजह है कि औरतें जो भाषा बोलती हैं वह मर्दभाषा है। मर्दभाषा कभी संतुष्ट नहीं करती हमेशा टालने वाली होती है। इसका अर्थ है किसी भी शब्द का अंतिम अर्थ हमेशा टाल दिया जाता है। जब आप अर्थ टाल देते हैं तो इसका अर्थ है भाषा का अर्थ अन्य के साथ जुड़ा है।तब आप पाते हैं कि किसी शब्द का अर्थ अन्य से क्यों भिन्न है। इसका अर्थ यह भी है कि किसी भी शब्द का अर्थ अंतहीन रूप में अन्य से जुड़ा होता है। यहीं पर 'डिफरेंस' यानी भिन्नता के जरिए अंतराल पैदा होता है। अवधारणात्मक रूप से अन्य के लिए जगह बनती है। यही वह बिन्दु है जहां पर विखंडन को देखा जा सकता है। इसी अर्थ में विखण्डन अन्य के लिए या मर्दवादी भाषा के विकल्पों के लिए स्थान देता है।

                     











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