मानव समाज शुरू से ही लैंगिक आधार पर दो भागों में बँटा हुआ है-स्त्री और पुरुष.इन दो लिंगों के मिलन से ही दुनिया का कारोबार चलता है अर्थात संतान का जन्म होता है.प्रारंभिक मानवों के समय न तो परिवार का अस्तित्व था और न ही समाज का.धीरे-धीरे परिवार का विकास हुआ क्योंकि स्त्रियों की गर्भावस्था और बच्चों के लालन-पालन के दौरान सुरक्षा की जरूरत होती थी.जब एक पुरुष और एक स्त्री के बीच ही यौन सम्बन्ध सीमित होने लगा तब परिवार का उदय हुआ और यह भी निश्चित होने लगा कि होनेवाले बच्चे का पिता कौन है.फ़िर जनसंख्या वृद्धि और स्थायी बस्तियों की संख्या बढ़ने के साथ ही संबंधों और संपत्ति के अधिकारों के नियमन के लिए समाज और शासक की जरूरत महसूस हुई.पहले परिवार के वृद्धजन मिलकर समाज के समक्ष उभरने वाले विवादों का समाधान करते थे बाद में राजतन्त्र और गणतंत्र का उदय हुआ.पराभौतिक शक्तियों के प्रति आस्था ने धर्म और संप्रदाय को जन्म दिया.धीरे-धीरे समाज शक्तिशाली होता गया और इतना शक्तिशाली हो गया कि लोगों को घुटन महसूस होने लगी.तर्कवाद की हवा चली और रूसो जैसे दार्शनिकों ने यह कहकर स्थिति के प्रति क्षोभ व्यक्त किया कि मनुष्य का जन्म स्वतंत्र मानव के रूप में होता है लेकिन वह दुनिया में आते ही विभिन्न तरह की जंजीरों में जकड़ जाता है.धर्म अब व्यक्तिगत आस्था का विषय हो गया और सर्वत्र प्रजातंत्र का विस्तार होने लगा.यहाँ तक तो स्थिति ठीक थी.२०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दुनिया को दो-दो विश्वयुद्धों का सामना करना पड़ा.सबसे ज्यादा नुकसान यूरोप और अमेरिका को हुआ.करोड़ों लोग असमय काल-कवलित हो गए.इन दोनों महाद्वीपों के लोगों की सोंच को इन युद्धों ने पूरी तरह बदल कर रख दिया.अब लोग सोंचने लगे कि जब ज़िन्दगी का कोई ठिकाना ही नहीं है तो क्यों न दुनिया का पूरा मजा लिया जाए.फलस्वरूप भोगवाद और उपभोक्तावाद का उदय हुआ.इन चीजों का प्रभाव लोगों के यौन व्यवहार पर भी पड़ा और यौन संबंधों में स्वच्छंदता को लोकप्रियता मिलने लगी.पश्चिम में तो स्थितियां इतनी विकट हो गई कि बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी भी राज्य को उठानी पड़ी.लोग सुख की तलाश में आँख बंद कर दौड़ते रहे.यानी मानव विकास की यात्रा में फ़िर वहीँ आ पहुंचा है जहाँ से उसने यात्रा आरम्भ की थी.लेकिन मानव इस अंधी दौड़ में रूका नहीं और उसने प्राकृतिक नियमों की भी अवहेलना करनी शुरू कर दी.पुरुषों के पुरुष से और स्त्रियों के स्त्रियों से खुलेआम यौन सम्बन्ध स्थापित होने लगे.स्थितियां इतनी विकराल होने लगी है कि कई पश्चिमी देशों ने इस तरह के संबंधों पर विवाह की मुहर भी लगानी शुरू कर दी है.लेकिन इस तरह के विवाहों से समाज को क्या मिलेगा?संतान तो मिलने से रही.भगवान ने मानव को दो लिंगों में बांटा है.प्रकृति ने उसे केंचुए की तरह उभयलिंगी नहीं बनाया है.सिर्फ व्यक्तिवाद के नाम पर ऐसे संबंधों को स्वीकृति देने से तो मानवों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा.दूसरी दृष्टि से देखें तो प्रत्येक मानव अंग का अपना अलग-अलग काम प्रकृति द्वारा निर्धारित किया गया है.गुदा का काम मलत्याग है न कि मैथुन.माना कि समाज का मानव पर बहुत ज्यादा नियंत्रण नहीं होना चाहिए.लेकिन मानव और समाज के अधिकारों के बीच एक संतुलन तो होना ही चाहिए.व्यक्तिवाद अगर समलैंगिकता की हद तक पहुँच जायेगा तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा और पृथ्वी अपने सबसे बुद्धिमान निवासी से रहित हो जाएगी.
...धीरे धीरे लोग भटकते जा रहे हैं!!!
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