राजेश त्रिपाठी
]आरंभ से ही हिंदी फिल्मों के निर्माण में अहिंदीभाषी क्षेत्रों के लोगों का वर्चस्व रहा। मिसाल के तौर पर दादा साहब फालके, चंदूलाल सेठ, भवनानी, वी. शांताराम, वाडिया ब्रादर्स, विजय भट्ट, शशिधर मुखर्जी, सोहराब मोदी, महबूब खान, एस.एस. वासन, श्रीधर, एल वी प्रसाद, शक्ति सामंत, राज कपूर, जी.पी. सिप्पी, नाडियाडवाला आदि। शुरू-शुरू में दर्शकों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए सीता, अनुसूया, सावित्री आदि सन्नारियों के जीवन चरित्र पर फिल्में बनायी जाती थीं। श्रेष्ठ कहानियों पर शिक्षाप्रद साफ-सुथरी सामाजिक फिल्में भी बनने लगी थीं, जो खूब सराही जाती थीं किंतु जैसे ही सिनेमा दर्शकों पर हावी हो गया और वेतनभोगी कलाकारों की जगह लाखों रुपये लेने वाले कलाकारों का बोलबाला हो गया, फिल्में मौलिक और अच्छी कहानियों से वंचित होने लगीं। पैसे कमाने के लिए निर्माता हालीवुड फिल्मों की अंधाधुंध नकल करने लगे। ढिशुंग-ढिशुंग कैबरे और नायिका के अंग-प्रदर्शन को फिल्म की कामयाबी की कसौटी माना जाने लगा और इस तरह से शुरू हुआ फार्मूला फिल्मों का अंतहीन सिलसिला। वक्त ने ऐसा मोड़ लिया कि पहले जहां लोग फिल्मों में काम करना बेइज्जती समझते थे, वहीं फिल्मी कलाकारों की एक झलक पाने के लिए बेताब रहने लगे। फिल्मी ‘स्टार’ देवताओं की तरह पूजे जाने लगे। आज स्थिति यह है कि सभ्य और संपन्न घराने के युवक-युवतियां भी ‘स्टार’ बनने ख्वाब आंखों में संजो कर चोरी-छिपे बंबई (अब मुंबई) भाग जाते हैं और वहां ठोकरे खाते हैं और जिंदगी तबाह कर लेते हैं, तब कहीं जाकर सिर पर चढ़ा फिल्मी भूत उतरता है। शुरू-शुरू की भारतीय ऐक्शन फिल्में विदेशी फिल्मों से ज्यादा प्रभावित थीं। सेक्सी और ऐक्शन फिल्मों में आलिंगन, चुंबन तथा अंग प्रदर्शन की भरमार होती थी। इस तरह के दृश्यों को निर्माता बड़े शौक से रखते थे। आर.एस. चौधरी द्वारा निर्देशित ‘सच है’ कि नायिका मिस रोजी थी, जो अछूत कन्या बनी थी। एक दृश्य में वह जांघ तक कपड़ा उतार कर पूछती है-‘बोलो तुम्हारी और मेरी चमड़ी में क्या फर्क है? इस दृश्य की वजह से यह फिल्म खूब चली। उन दिनों भारत में अंग्रेजों का शासन था। उन्हें फिल्मों मे सेक्सी दृश्य दिखाने में कोई आपत्ति नहीं थी। स्वाधीनता के पूर्व तक सेंसर की उदारता, उस समय के निर्माताओं के लिए वरदान थी और उसका उन लोगों ने भरपूर फायदा उठाया। सुलोचना (रूबी मेयर्स) ऐसी पहली भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्होंने परदे पर अपने हीरो जाल मर्चेंट का चुंबन लिया था। यह चुंबन दृश्य अर्देशिर इरानी की फिल्म ‘हमरा हिंदुस्तान के लिए फिल्माया गया था। हिमांशु राय और देविका रानी के बीच फिल्माया गया चुंबन दृश्य भी काफी मशहूर हुआ था। 1947 में आजादी के बाद कांग्रेस की सरकार बनी, तो चुंबन और अश्लील दृश्यों पर अंकुश लगाने के बारे में सोचा जाने लगा। 1952 में केंद्रीय सेंसर बोर्ड के गठन के बाद इस पर कारगर ढंग से रोक लगायी जा सकी।
तकनीकी दृष्टि में तब की फिल्में, आज की फिल्मों की तुलना में उन्नीस बैठती हैं। शुरू-शुरू में शूटिंग के लिए जिस कैमरे का प्रयोग किया जाता था, वह हाथ से चलाया जाता था इसलिए फिल्म की गति में एकरूपता नहीं रह पाती थी। बाद मे बिजली से चलनेवाले कैमरे आये और फिल्मों की गति भी सामान्य होने लगी। बोलती फिल्मों का युग आने पर पहले दृश्य और ध्वनि एक साथ निगेटिव फिल्म में ही लेने की व्यवस्था थी। ऐसी स्थिति में फिल्म संपादक को बड़ी परेशानी उठानी पड़ती थी। खासतौर से गानेवाले दृश्यों को कैंची छू नहीं पाती थी। कारण, जरा-सा अंश कटने से गाने के बोल या संगीत की लय में विघ्न पड़ने का अंदेशा रहता था। यदि कलाकारों के संवाद उच्चारण में गड़बड़ी हो जाती तो उस दृश्य को फिर से फिल्माया जाता था, क्योंकि तब डबिंग की व्यवस्था नहीं थी। आजकल आउटडोर शूटिंग में बोले गये संवाद बाद में डबिंग थिएटर में डब कर लिये जाते हैं। (आगे पढ़ें)
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