14.4.10

पड़ोसी का सुख बना हमारा दुख

माल रोड की एक दुकानू पर मैं भी बाकी ग्राहकों की तरह सामान लेने के लिए खड़ा था। ज्यादा ग्राहक भी नहीं थे। जिस ग्राहक से दुकानदार बात कर रहा था, वह कोई सामान चेंज कराना चाहता था। दुकानदार ने सामान के बदले पैसे लौटाना चाहे तो ग्राहक दंपति पसोपेश में पड़ गया। उनके चेहरे को भांप चुके दुकानदार ने समझाया कोई जरूरी नहीं है कि आप कोई दूसरा सामान लें ही। ग्राहक भी सज्जन थे, उन्होंने कुछ सामान खरीद ही लिया। यह सामान कुछ कम कीमत का था दुकानदार ने बाकी पैसे लौटाए, उन्होंने संकोच के साथ पैसे लिए।
मैंने जो खरीदना था, खरीद कर पेमेंट करने लगा तो दुकानदार ने उसी कंपनी का एक अन्य प्रॉडक्ट दिखाते हुए कहा इसकी कीमत कम है और क्वालिटी सेम है। जाहिर है मैंने दूसरा प्रॉडकट ही लिया होगा। मैंने पेमेंट करते हुए कहा आप जैसे दुकानदार बहुत कम देखने को मिलते हैं। उसका जवाब था, जी हम ग्राहक को भगवान समझते हैं। वैसे भी जो हमारी किस्मत में होगा वह तो हमें ही मिलेगा। उनके इस कथन में चौंकाने वाली कोई बात नहीं थी, अमूमन हर दुकानदार का यही जवाब रहता है। गौर करने वाली बात थी दूसरे के सुख में खुश होना।
मुझे लगता है हम सब जिस भी पेशे में हैं अपने पड़ोसी से ज्यादा हासिल करने की रेस में पूरी जिंदगी गुजार देते हैं फिर भी एक फांस दिल में चुभी रहती है और उसका दर्द कानों में गूंजता रहता है कि 'बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी कम निकलेÓ। कितना अफसोसजनक है हमारे पास जो कुछ है उसका तो उपभोग कर नहीं पाते, रातों की नींद इसलिए उड़ी रहती है कि बस एक रुपए का इंतजाम और हो जाए तो निन्यानवे पूरे सौ रुपए हो जाएंगे। इस नाइंटी नाइन का चक्कर हमें घनचक्कर बना देता है।
शताब्दियों पहले हमारे पूर्वज समझा गए 'संतोषी सदा सुखीÓ। इन तीन शब्दों का मतलब समझ नहीं पाते इसलिए हमेशा दु:खी रहते हैं कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद क्यों है? हमने नीचे देखना छोड़ दिया है, वरना हमेें अहसास हो जाता कि ऐसे लोग भी जी रहे हैं जिनके पास कमीज ही नहीं है। हमारा पड़ोसी अपने दुश्मन की कोठी, महंगी गाड़ी देखकर ही दु:ख में दुबला हुए जा रहा है। हम सब की हालत उस मृत फटेहाल भिखारी की तरह हो गई है जिसकी लाश उठाने के बाद मटमैली चादर झटकारने पर सौ-सौ के नोटों की गड्डियां नजर आती है। ऐसे किस्सों पर हम भी उस भिखारी की किस्मत पर शोक व्यक्त करने में विलंब नहीं करते, पर तब भी यह भूल जाते हैं कि कहीं हम सब भी तो उन्हीं रास्तों पर सफर नहीं कर रहे। हमारे नासमझ बच्चे गुब्बारे की जिद्द करते हैं और जिद्द पूरी हो जाने पर खुश भी हो जाते हैं।
हम तो अपने बच्चों से भी गए-गुजरे हो गए हैं, जो पाना चाहते हैं, छलछद्म से प्राप्त भी कर लेते हैं लेकिन अपनी इस सफलता को खुद ही नकार देते हैं क्योंकि तब-तब हमारी इच्छाओं का आकाश और फैल जाता है। इस आकाश के अंतिम छोर को हम मरते दम तक नहीं छू पाते क्योंकि हमारी इच्छाएं कभी खत्म ही नहीं होती। ऐसे ही कारणों से हम संतोषी सदा सुखी जैसे सहज शब्दों का मर्म नहीं समझ नहीं पाते।
हम अपने लोगों की मेहनत और तरक्की को भी नहीं पचा पाते। कैसा अजीब मनोविज्ञान है यह, हमें अपना संघर्ष तो महानतम लगता है किंतु दिन-रात मेहनत करके सफलता का शिखर छूने वालों को हम एक सैकंड में यह कह कर खारिज कर देते हैं कि जोड़-तोड़ की बदौलत सफलता मिली है। मानसिकता का यह दिवालियापन भी इसलिए सामने आ जाता है क्योंकि पहुंचना तो हम भी चाहते थे उस शिखर पर लेकिन सारा वक्त तो हम आगे बढऩे वालों की टांग खींचने में ही लगे रहे। न तो आगे बढऩे वालों से सफलता के मूलमंत्र सीख पाए और न ही पानी से ही सीख पाए कि सात तालों में बंद रखने, तमाम अवरोध लगाने के बाद वह और अधिक ताकत के साथ आगे निकलने का रास्ता खोज ही लेता है। पानी जैसे हो नहीं पाते और पानी से कुछ सीखते भी नहीं, हमारी स्थिति कबीर की उलटबासी जैसी रहती है पानी में रहने के बाद भी मछली प्यासी की प्यासी।

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