3.4.10

माटी का क़र्ज़


आज काफी दिनों बाद मैं और मेरी एक मित्र जो पेशे से आर्किटेक्ट और चित्र कार भी है, उससे मेरी काफी दिनों बाद बाते हुई और बातो बातो में एक बात निकली की हमारी देश की कितने ही प्रतिभावान छात्र विदेशो में कार्यरत है... हमारे देश की ऊर्जा हमारे देश में नहीं लग रही..आज हर छात्र अपनी आँखों में विदेश जाने का सपना लिए किसी अच्छे कॉलेज से अपनी डिग्री पूरी करना चाहता है... जैसे ही डिग्री ख़त्म हुई वो चले विदेश की सैर को...और जो छात्र विदेश नहीं जा पाते वो ये नहीं कहते की हम भारत में रहकर अपने देश के लिए कुछ करना चाहते है... वो ये कहेंगे की हमें तो मौका ही नहीं मिल पाया विदेश जाने का नहीं तो हम भी जरुर जाते....विदेश जाना तो ठीक है लेकिन वह जाकर ये कहना की भारत में क्या रखा है....यदि जीने का अंदाज सीखना है तो विदेश की जीवन शैली को देखो....क्या है विदेशी सभ्यता जहाँ एक बच्चे को जन्म के कुछ साल बाद अलग ही कमरे में रहने दिया जाता है ? और माता पिता को ये भी खबर नहीं रहती की उनका बच्चा घर कब आया? या फिर अपने ही काम में मस्त रहने वाले लोग? इससे तो लाख गुना अच्छा हमारा देश है जहा अगर बछा एक दिन रोटी न खाए तो माँ परेशान हो जाती है? पड़ोसी न दिखे तो लोग हाल चाल पूछने चले आते है.... क्यों हमारा मन विदेश जाकर अपनी माटी की खुश्बू को भुला देता है? जिस माटी में तुम पले बढ़े , जहा खेलते हुए तुमने सही और गलत में फर्क करना सिखा..... आज विदेश जाकर विदेशी राग अलाप रहे हो...हम ये क्यों भूल जाते है कि जहाँ हम जन्म लेते है जहाँ से हमें संस्कार दिए जाते है वो ही हमारे मंजिल की पहली सीढ़ी है... यदि वो सीढ़ी ही नहीं मिलती तो हम अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच पाते... तुम जहाँ भी रहो खुश रहो लेकिन ये मत भूलो के इस देश की माटी ही तुम्हारी जननी है और जननी का कर्ज ही सर्वोपरि होता है जिसे देर सवेर चुकाना ही होता है... क्यों न हम अपने देश के लिए कुछ करे, कुछ ऐसा कि हमारे देश कि प्रतिभा हमारे देश में रहकर हeइ विदेशो में अपने नाम का डंका बजवाए .....

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