30.5.10

राय साहबों की महिमा

(उपदेश सक्सेना)
आपका साबका कभी न कभी ऐसे लोगों से ज़रूर पड़ा होगा, जिन्हें बिन मांगी सलाह देने की आदत होती है. किसी के भी फटे में टांग अडाने की उनकी आदत, उनकी जिंदगी की ज़रूरत हो सकती है, मगर इससे आपको अवश्य कोफ़्त पैदा कर जाती होगी. शादी-ब्याह के मौकों पर ऐसे “राय साहबों” की खेप देखने को मिल जाती है, हर बात में नुक्स निकालना इनकी फ़ितरत में शुमार होता है. कोई माने-न माने यह तबका अपनी बात ज़रूर कहने को उतारू मिलता है. आपने कुछ खरीदा हो या नया घर बनवाया हो, बात किसी के रिश्ते ही क्यों ना हो, आपको इनकी सुनना ज़रूर पड़ेगी..... पहले क्यों नहीं बताया, वहाँ से खरीदवा देता, वह मेरा परिचित है, काफी सस्ता मिल जाता.......यदि घर में यह खिडकी वहाँ लग जाती तो बात कुछ और होती......उस घर में रिश्ता मत करना उनके बेटे के लक्षण अच्छे नहीं हैं.....और हाँ ये राय साहबगण किसी भी जगह अपना ‘राष्ट्र चिंतन’ करना शुरू कर देते हैं. अब इस चरित्र पर ज़्यादा क्या लिखूं, आप इसके बारे में भाल-भाँति जानते ही होंगे.
एक स्वरचित कविता रुपी पंक्तिया ऐसे ही “राय साहबों” को समर्पित कर रहा हूँ.-

हमारे पुरखों ने दिये थे उपदेश,


उनके पुरखों ने भी दिये होंगे उपदेश,


हम भी दे रहे हैं उपदेश,


शान से, नमक-मिर्च लगाकर,


कल आने वाले भी,


देंगे उपदेश,


उसी आन-बान-शान से,


इस तरह बढ़ती जा रही है,


उपदेश देने वालों की


लंबी कतार,


मगर क्या हम,


वही रहेंगे,


उपदेश संस्कृति के संवाहक............
आज का उपदेश भी लगे हाथों झेल ही लें – कान में कही गई बात अक्सर सौ मील के फासले पर सुनी जाती है और किसी व्यक्ति या विषय के बारे में की गई कोई बात जब चार मुंह से अलग-अलग निकलती है तो उसके बाद उस व्यक्ति का भी उन पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाता, उस वक़्त वह आदमी, आदमी ना होकर एक चरित्र बन जाता है. और वह विषय, एक कथा.

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