(उपदेश सक्सेना)
इस वक्त देश में एक नई बहस जाति आधारित मतगणना को लेकर चल रही है. कई राजनीतिक दल चाहते हैं कि 2011 की चल रही जनगणना में अन्य पिछड़ा वर्ग को पृथक से दर्ज़ किया जाए. हालांकि दलित वर्ग के नेता इसके खिलाफ हैं क्योंकि फिलहाल उपलब्ध जाति के आंकड़ों में दलित सबसे बड़ा वर्ग है. जाति का मुद्दा भारत में एक बड़ा विस्फोटक मसला रहा है. उधर अन्य पिछड़ा वर्ग के नेता दावा करते हैं कि देश की कुल आबादी में से उनकी संख्या आधी से ज्यादा है. यदि इस दावे को सच मान लिया जाए तो समूचे भारत में सामान्य जाति के पुरुषों का कोई अस्तित्व ही नहीं है, क्योंकि आधी आबादी तो महिलाओं की मानी जाती है.पिछड़ा वर्ग के सरकारी आंकड़े आखिरी बार 1931 में इकट्ठा किये गए थे.
अब सवाल यह उठता है कि आखिर राजनेताओं को जाती आधारित मतगणना की बात क्यों सूझ रही है. अखंड कहलाने वाला भारत वैसे ही सूबों में टूट रहा है, उस पर अब देश को जाति के आधार पर तोड़कर इसकी रीढ़ को क्यों कमज़ोर किया जा रहा है? दरअसल यह सब राजनीति का खेल है. जिस समाज के नाम पर नेता पृथक व्यस्था चाहते हैं, आज़ादी के 63 साल बाद उसकी कितनी तरक्की हुई इस बात का आकलन कोई नहीं करता. वैसे भी आज के वक्त में वर्ण-व्यवस्था के मायने केवल सुविधाओं के उपभोग तक ही सीमित रह गए हैं, आज सवर्ण लोग उन धंधों को अपना चुके हैं जो कभी उनके लिए वर्जित माने जाते थे, या अस्वच्छ काम करने वाले लोगों ने ऐसे धंधे शुरू कर लिए हैं जिनके बारे में कभी सोचना भी उनके लिए पाप था. आम जनता को अब इस बात में कोई रूचि नहीं कि किसका वर्ण क्या है. मैं समझता हूँ कि आज की नई पीढ़ी को तो वर्ण-व्यवस्था के वर्ण भी क्रम से शायद ही याद हों. आज यदि वर्ण-व्यवस्था जारी रखना ज़रूरी हो तो इसे नए रूप में तैयार करना होगा, वह भी केवल देश के कर्णधार-नेताओं के लिए,इसके लिए नेताओं की श्रेणी भी मेरे हिसाब से नयी होना चाहिए मसलन भ्रष्टाचारी, आतताई, रिश्वतखोर, बलात्कारी, हत्यारा, देशद्रोही जैसे वर्गों में नेताओं के वर्ण तय किये जाएँ. कई नेताओं का शैक्षणिक ज्ञान इतना अधिक हो सकता है कि वे जनगणना और मतगणना में शायद ही अंतर कर पाते हों.
All men delusion, but not equally. Those who delusion by means of edge of night in the dusty recesses of their minds, wake in the age to find that it was vanity: but the dreamers of the epoch are menacing men, benefit of they may act on their dreams with open eyes, to create them possible.
ReplyDeleteThe glorification of extensive men should always be slow by the means they from used to into it.
ReplyDeleteLocale an warning is not the sheer means of influencing another, it is the however means.
ReplyDeleteA humankind begins sneering his discernment teeth the senior often he bites on holiday more than he can chew.
ReplyDeleteA contented old majority is the prize of a well-spent youth. A substitute alternatively of its bringing dejected and melancholy prospects of disintegrate, it would sing us hopes of eternal lad in a recovered world.
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