(उपदेश सक्सेना)
क्या आप बिल क्लिंटन की जाति जानते हैं? ब्लादिमीर पुतिन किस जाति के हैं, या जापानी प्रधानमन्त्री किस जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं?, शायद नहीं, और संभवतःयही कारण है कि जिन देशों का यह नेता प्रतिनिधित्व करते हैं वे आज तरक्की कि दौड में हमसे कोसों आगे हैं. सफल लोकतंत्र में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण शर्त है आगे की ओर देखना. भारत को आज भी जब तेजी से विकसित हो रहे देशों की श्रेणी में शुमार किया जाता है तब मन में यह कसक टीस बन कर परेशान कर देती है कि आखिर कब तक हम इस दौड में महज़ एक नंबर बनकर दौड़ते रहेंगे? इसके पीछे शायद कारण यह भी है कि हम चार कदम आगे बढ़कर अपनी पुरातन रवायतों के भ्रम जाल में फिर दो कदम पीछे हट जाते हैं. इस वक़्त देश में जाति आधारित जनगणना पर बहस चल रही है. एक ओर तो हम अपनी अखण्डता के किस्से सुनाते-सुनाते नहीं अघाते, वहीँ दूसरी तरफ अतीत की बुराइयों को भी ‘बंदरिया के मृत बच्चे’ की तरह अपने सीने से चिपटाए रहते हैं. कुछ नेताओं के ऐसे प्रयास भारत के मज़बूत नागरिक समाज को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं. भारत की सांस्कृतिक एकता धुर देहात तक नज़र आती है, मगर यह कोई नहीं सोच-समझ रहा कि अपने राजनीतिक निहितार्थों के लिए कुछ क्षेत्रीय ताकतें अपना वज़ूद बचाने के लिए जाति-जनगणना का दाँव खेल रहे हैं.अंग्रेज़ों की फूट डालो, राज करो की नीति के मुरीद ये नेता अपने राजनीतिक स्वार्थों की खातिर समाज को बांटने का षड़यंत्र रच चुके हैं.
भारत आज विश्व का एकमात्र ऐसा देश बन चुका है जहां सबसे ज़्यादा आरक्षण है. यह समाज के विघटन की शुरुआत है. जाति कोई आपत्तिजनक बात नहीं है, मगर इसका राजनीतिक दोहन किया जाना भी कोई सम्मानजनक या राष्ट्रीय गर्व का विषय नहीं हो सकता. आज जाति आधारित जनगणना की बात चल रही है, कल विवाहों पर नियंत्रण की बात उठेगी, इसके बाद प्रेम विवाहों का नंबर भी आ सकता है. आखिर असली ताक़त आम आदमी के हाथों में कहाँ है? इस तरह की जनगणना के बाद सरकार पर आरक्षित वर्गों के लिए ज़्यादा सुविधाओं, धन की मांगें तेज़ हो जायेंगी. सामान्य वर्गों के लिए वैसे भी सरकारी क्षेत्र में कोई काम नहीं बचा है. इस बात पर भी गौर करना होगा कि सरकार हर साल आरक्षित वर्गों के लिए अरबों रूपये की योजनाएं संचालित करती है, मगर उन्नयन तो दूर गरीब-पिछड़े वर्ग की जनसंख्या आनुपातिक स्तर पर काफी बढ़ रही है. सरकार का यह दावा उसे कितना पंगु और जनता को बेवकूफ समझने वाला है कि “आज़ादी के बाद से अनुसूचित जातियों-जनजातियों को छोडकर किसी भी जाति के सवाल को नीतिगत फैसलों के तहत शामिल नहीं किया गया था.” इस बात का कोई जवाब नहीं दिया जा रहा कि आखिर अचानक इसकी ज़रूरत कैसे आन पड़ी.? यह भी सत्य है कि जाति-जनगणना से विभाजनकारी ताक़तें ज्यादा मज़बूत होकर उभरेंगी, इस तरफ से सरकार ने आँखें मूँद रखी है. सोते व्यक्ति को जगाना आसान होता है, मगर सोने का नाटक करने वाले को कोई नहीं जगा सकता. जनता जाग तो रही है, मगर उस निरीह पशु की तरह जिसको दुह कर पुनः खूंटे से बाँध दिया जाता है, वोट छीन लिया गया है, अब तो हाथों में तोते भी नहीं बचे.
जाति के आधार पर जनगणना नेताओं के लिए बहुत जरुरी है. इसका फ़ायदा केवल उन्हें ही है. जातिगत आधार पर विधानसभा और लोकसभा में उम्मीदवार खड़ा करने में मदद मिलती है. आरक्षण के लिए आन्दोलन करने में मदद मिलती है. भिन्न भिन्न जाति के लोगों में नफ़रत फ़ैलाने में मदद मिलती है. एक आम भारतवासी बहुत भोला होता है और वो आसानी से इन नेताओं की बात में आ जाता है और उनकी एक आवाज पर एक दूसरे को मरने मारने पर उतारू हो जाता है ; अपनी जाति के उम्मीदवार को मत देने को तैयार हो जाता है. उस वक्त वो ये नहीं देखता कि वो उम्मीदवार उस सदस्यता के लायक है या नहीं. एक आम आदमी को जाति के आधार पर आरक्षण से कोई फायदा नहीं होता. लाखों पद खाली पड़े रहते हैं. कई बार अक्षम कर्मचारी उच्च पद पर आसीन हो जाते हैं. इन नेताओं की रोजी-रोटी केवल जातिगत राजनिति पर ही चलती है. जिस तरह से अंग्रेजों ने हम लोगों को कभी एक नहीं होने दिया; उसी तरह आज ये नेता हमें कभी एक नहीं होने देना चाहते हैं. अब जाति के अलावा क्षेत्रीयता के आधार पर भी हमें बांटा जा रहा है. पता नहीं इन नेताओं को कब सदबुधि आयेगी और कब एक आम भारतीय को उसके वास्तविक अधिकार मिलेंगे?
ReplyDeleteउपदेश जी , आपके लेख की विषय वस्तु सामयिक है । हम सबको प्रथमत: जातीय व्यवस्था तोड़ने का प्रयास करना है ।
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