5.5.10

... और जीत गए जंग

 लोकेन्द्र सिंह राजपूत
म सदा एक ही रोना रोते रहते हैं कि इस समय मैं कौन किसके लिए क्या करता है? सब अपने-अपने लिए जीते हैं। हकीकत में यह पूर्ण सत्य नहीं है आज भी दुनिया में कई लोग मौजूद हैं जो निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य करते हैं। असल में उसमें उन्हें जो मजा आता है सुख मिलता है, बस इसी अद्भुत सुख की कामना उस निस्वार्थ भाव से किए जा रहे काम के पीछे का स्वार्थ होता है।
मेरा शहर है ग्वालियर। ग्वालियर का स्टेशन, यहां से होकर हजारों यात्री निकलते हैं। कोई नई बात नहीं सभी रेलवे स्टेशन पर यही होता है। पर एक खास चीज है, मेरे ग्वालियर के रेलवे स्टेशन की। यहां आपको कई युवक-युवती और बुजुर्ग लोग ट्रेन के हर डिब्बे तक दौड़-भाग कर पानी पिलाते नजर आएंगे। ये सभी पंजाबी परिषद के माध्यम से निशुल्क और निस्वार्थ भाव से रेलवे यात्रियों को भरी दोपहर में पानी पिलाते हैं। इसके लिए न तो सरकार-प्रशासन उन्हें कुछ देता है और न ही संस्था के माध्यम से उन्हें कुछ मिलता है। फिर भी बड़ी जीवटता से ये ४५-४८ डिग्री के प्राणसुखाऊ टेम्परेचर में भी सूख रहे गलों को तर करने के लिए दौड़-भाग करते हैं।
मुख्य बात यह है कि सात-एक दिन पहले प्रशासन ने स्टेशन पर पानी बेचने वालों के हित को ध्यान में रख कर फैसला लिया था कि कोई भी अब स्टेशन पर निशुल्क पानी उपलब्ध नहीं कराएगा। मुझे प्रशासन के इस आदेश से बड़ी हताशा हुई। खुद तो कोई व्यवस्था करता नहीं और कोई आगे आकर भला काम करना चाहे तो उसे करने नहीं देता। पंजाबी परिषद के लोगों ने इस आदेश के विरुद्ध आवाज बुलंद की। उनकी आवाज में सत्य था और उन करोड़ों लोगों की दुआएं थीं, जिनके सूखे गलों तक परिषद के लोगों ने नीर पहुंचाया था। आखिर में चार-एक दिन में ही प्रशासन को अपने फैसला बदलना पड़ा। आज जब स्टेशन पहुंचा तो उन्हें पानी पिलाते देख सुखद अनुभूति हुई। 
---->>    "एक याद है मेरी परिषद के साथ आप पढ़ो तो सुनाऊं। चूंकि अपुन का मन भी थोड़ा-सा सेवाभावी है। मैं कॉलेज में पढ़ रहा था तब मेरा भी मन हुआ कि खुद एक प्याऊ खोलूं। खर्चा पानी जोड़ा, अपने पॉकेट से बाहर का मामला दिखा। फिर सोचा किसी को स्पॉन्सर बना देते हैं, कुछेक नाम थे मेरे पास जो मेरा कहा नहीं टाल सकते थे। खैर ये आइडिया भी ड्राप किया। फिर डिसाइड किया कि क्यों न परिषद के काम में हाथ बंटाया जाए। अपने एक भाई साहब जी हैं उन्होंने रेलवे स्टेशन पर परिषद की उत्साही टीम से मिलवाया। ग्वालियर की गर्मी, उफ! बाबा। ऐसी गर्मी में सिर से बांधी सॉफी और पानी की ट्रॉली इधर से उधर दौड़ा कर डिब्बे-डिब्बे जाकर पानी पिलाया। कभी-कभी थकान होने पर बैठ जाते तो, ऊर्जा से लबालब बुजुर्ग कहते-क्या बेटा अभी तो खून गर्म है और इस गर्मी से उबल भी रहा होगा। आलस मत खाओ। उनका कहना सुनकर फिर अपने काम पर लग जाते। बड़ा अच्छा अनुभव रहा। खूब मजे आए थे सफर पर निकले लोगों को पानी पिलाने में......."

4 comments:

  1. अब इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है ? हम काम करेंगे नहीं और दूसरों को करने देंगे नहीं. अब प्रशासन का काम क्या यही रह गया है? लानत है ऐसे अधिकारीयों पर जो अमानवीय सोच रखते हैं. हमारे राजस्थान में भी लगभग हर स्टेशन पर प्याऊ बनी हुई है जहां मुफ्त जल सेवा उपलब्ध है जबकि राजस्थान में पानी खून से भी महंगा है. न्यायपालिका ना हो तो प्रशासन आम आदमी से सांस लेने के लिए भी पैसे ले लेगा या फिर सड़क पर चलने के भी पैसे मांग लेगा.

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  2. ठीक कहा आपने

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  3. बीकानेर भटिंडा मार्ग पर भी इस तरह की सेवा जारी है ,लेकिन रेल प्रशासन की मंशा सही नही है बीकानेर में तो अभी भी अनुमति ही नही दी गयी है,न खुद का कोई प्रबंध किया है....

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