8.6.10
कहाँ आ गए हम कहाँ जा रहे थे-ब्रज की दुनिया
हमारे देश की अर्थव्यवस्था विकास की पटरी पर सरपट भाग रही है.टी.वी. और डी.वी.डी. अन्य कई वस्तुओं के साथ आधुनिक जीवन शैली का पर्याय बन गई हैं.शायद ही कोई ऐसा घर हो जहाँ इन्होंने अपना सम्मानजनक स्थान न बना लिया हो.लेकिन कल महाराष्ट्र के ऐतिहासिक शहर नांदेड में लोग इन्हें घरों से निकाल-बाहर करते देखे गए.देखते-देखते चौराहा टूटे-फूटे टी.वी. और डी.वी.डी. के सेटों से पट गया.लोगों का कहना था कि इनदोनों की वजह से उनका जीना मुहाल हो गया है.बच्चे बिगड़ने लगे हैं और पढाई-लिखाई करना भूलने लगे हैं.ऐसी घटनाएँ पश्चिमी देशों में अक्सर घटती रहती हैं लेकिन भारत में शायद इस तरह की यह पहली घटना है.आधुनिक तकनीकी विकास ने एक ओर जहाँ हमारे जीवन को आसान बनाया है वहीँ इसने कुछ इस तरह की स्थितियां उत्पन्न कर दी है कि धरती पर मानव के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है.कुछ लोग कह सकते हैं कि इसमें इन वस्तुओं का क्या कसूर?इनका उपयोग करना तो मानव के हाथों में ही है.वह चाहे इसका सदुपयोग करे या दुरुपयोग.लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि एक तो अधिकांश मनुष्यों का मानसिक स्तर इतना ऊंचा नहीं होता कि वे इनका विवेकपूर्ण उपयोग कर सके वहीँ दूसरी ओर कोई भी आराम की ज़िन्दगी को त्यागना नहीं चाहता.फ़िर बच्चों का कहना ही क्या उन्हें तो बस आनंद चाहिए चाहे वो टी.वी. देखने से आये या फ़िर वीडियो गेम खेलने से.हमें अक्सर इस तरह की ख़बरें पढने और देखने-सुनने को मिल जाती हैं कि कोई बच्चा लगातार इतनी देर तक गेम खेलता रहा कि उसकी मौत ही हो गई.बच्चों को जैसे वीडियो गेम खेलने का नशा हो जा रहा है. इस विषय में दुनिया के विभिन्न देशों में कराये गए अलग-अलग सर्वेक्षणों का निष्कर्ष बस एक है कि जो बच्चे जितना ज्यादा टी.वी. देखते हैं और जितना ज्यादा समय गेम खेलने में गुजारते हैं वे पढाई में उतने ही बुद्धू होते हैं.शायद इसलिए टी.वी. को बुद्धू बॉक्स भी कहा जाता है. माना कि टी.वी., डी.वी.डी. और मोबाइल आदि हमारे जीवन का अनिवार्य अंग बन चुके हैं लेकिन इनका दुष्प्रभाव इनसे होनेवाले फायदों से काफी ज्यादा है.स्थिति ऋणात्मक असंतुलन की है.मोबाइल से होनेवाली हानियाँ तो खतरनाक भी हैं.अलबर्ट आईन्स्तिन ने मौन तपस्वी मधुमक्खियों के बारे में कहा था कि इनके धरती से समाप्त होने के कुछ ही मिनटों के भीतर धरती से मानव का नामोनिशान भी मिट जायेगा.लेकिन उन्होंने यह नहीं सोंचा होगा कि ऐसी स्थिति इतनी जल्दी आ जाएगी. मधुमक्खियों का अस्तित्व आज मोबाइल टावरों से निकलनेवाली रेडियो तरंगों के कारण खतरे में है.मानव पर इन तरंगों के असर का समुचित अध्ययन होना अभी बांकी है लेकिन इसने मधुमक्खियों के साथ-साथ पक्षियों पर भी असर डालना शुरू कर दिया है और उनके अंडे पतले होने शुरू हो गए हैं.लगता है कि अगली बारी उन्ही की है.ऐसे में किस तरह इस बात पर विश्वास किया जाए कि इन तरंगों का मानव शरीर और मस्तिष्क पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ रहा होगा?हम किस तरफ जा रहे हैं?कृषि के आधुनिकीकरण ने पहले ही हमारी जमीन को ऊसर बनाकर रख दिया है.जल के परंपरागत संरक्षण के साधनों की सरकारी और निजी उपेक्षा के चलते भारत के अधिकांश इलाकों में भूमिगत जल खतरनाक स्तर तक पहुँच गया है.खेती पर तो संकट के बदल मंडरा ही रहे हैं पीने के पानी की भी कमी होनेवाली है.वैसे भी कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से पानी पहले ही जहरीला हो चुका है.पशुओं से दूध दूहने के लिए लगनेवाले ईन्जेक्शन के चलते प्राकृतिक सफाई कर्मी कहलानेवाले गिद्ध अब लुप्तप्राय प्राणियों की श्रेणी में आ चुके हैं.उद्योगों ने हमारी स्वच्छ और पवित्र नदियों को गंदे नालों में बदलकर रख दिया है. क्या हम विकास के इस अंधे रास्ते पर कुछेक कदम वापस नहीं लौट सकते?मैं जानता हूँ कि कुछ लोग कहेंगे कि विकास की गाड़ी में रिवर्स गियर नहीं होता.उनकी बात कहीं से भी सही नहीं है.सबकुछ हमारे हाथों में है.हमें रिवर्स गियर लगाना ही पड़ेगा अन्यथा धरती से हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा और समाप्त न भी हो तो जीवन कठिन तो हो ही जायेगा.वैसे भी प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था एक-न-एक दिन पूर्ण सांद्रता की स्थिति में पहुँचती है.शायद यूरोप और अमेरिका में ऐसी स्थिति आ भी चुकी है.कहीं-न-कहीं जाकर हमारी औद्योगिक प्रगति भी रूकेगी ही?अगर पर्यावरणीय परिवर्तन और मानसून की यही दशा रही तो सबसे पहले तो बहुत जल्दी अगले कुछेक सालों में ही हमारे सामने खाद्यान्न संकट उत्पन्न होने वाला है और इसके लिए जिम्मेदार होगा हमारा कथित विकास.कोई ज्यादा साल नहीं,यही कोई ४०-५० साल हुए जब भारत में इन आधुनिक साधनों का कोई अता-पता तक नहीं था.क्या तब हमारा जीवन आज से ज्यादा सुखी नहीं था?क्या आवश्यकता है हमें पश्चिमी अर्थव्यवस्था और जीवन-शैली की नक़ल करने की? क्या हम भावी मानवता के हित में आधुनिक जीवन-शैली और आधुनिक कृषि का परित्याग कर फ़िर से पुरानी जीवन-शैली नहीं अपना सकते?इन्सान के लिए पूरी तरह असंभव कुछ नहीं होता.अब हमें निर्णय लेना ही होगा.टालने का समय समाप्त हो चुका है.हमें बहुत जल्द निर्णय लेना होगा कि हम अपनी आगे आनेवाली पीढ़ी को कैसी जिंदगी विरासत में देना चाहते हैं?मधुमक्खियों की गुंजार और पक्षियों के कलरव और स्वच्छ जल और वायु से युक्त जीवन या फ़िर वास्तव में जीवन से रहित जीवन.अब यह हम पर निर्भर है कि हम स्वेच्छा से जीवन शैली बदलते हैं या फ़िर प्रकृति के हाथों बाध्य होकर इसके अलावे तीसरा विकल्प भी है जो हमें महाविनाश की ओर ले जायेगा.
भाई साब आपने सही चेतावनी दी है लेकिन आपकी सुनेगा कौन?सब आनंदपूर्ण जीवन जीने में लगे हुए हैं और सोंचते हैं कि जब कुछ होगा तब देख जायेगा.
ReplyDeleteबहुत ही सारगर्भित लेख है | सोचने को
ReplyDeleteमजबूर करता है | ऐसे विकास और विज्ञान से
क्या लाभ जो हमारे अस्तित्व पर खतरा
साबित हो |
लेकिन; एक बात और ध्यान देने की है
कि;हमारे इतिहास और सभ्यता के अनुसार
त्रेता और द्वापर युगों में आज से अधिक विज्ञान और विकास का आधिक्य हुआ था पर तब तो इस तरह का विनाश तो न सुनने में आया न कहीं पर
देखने को मिला हाँ भय अवश्य कहीं-कहीं पर
दिखाया गया है |
पर आपका लेख बहुत अच्छा है|