काश...मैं इक लड़की होता...
समाज मुझे घृणा की नज़रों से तो देखता...
लेकिन...
मुझे मिलती हर शख्स से सहानुभूति...
जानता हूँ कि इस सहानुभूति की आड़ में....
हजारों नज़रें हर पल मेरे भक्षण का षणयंत्र रचती...
लेकिन...
मैं फिर भी खुश होता...
खुश होता मैं प्रेम भरी ललचाई नज़रों से टपकता स्नेह पाकर....
काश... मैं इक लड़की होता...
मैं यह जानता कि तुम्हारे बेपनाह स्नेह का अंतिम मक़सद...
मेरी देह का उपभोग भर होता...
लेकिन...
मुझे संतोष होता इस बात का कि...
जब भी इस भीड़ में से कोई हाथ मुझे छूने को बढता...
तो तुम उसे ज़रूर रोकते...
वासना तो तुम्हारी नज़रों में भी होती...
लेकिन...
मुझे फख्र होता इस बात का कि...
मैं किसी एक के प्रति समर्पित होता...
जबकि पुरूष होते हुए मैं ऐसा नहीं करता...
काश...मैं इक लड़की होता...
मेरे लिये होती इक अलग कतार...
वो केवल इसलिये कि मेरे शरीर के कोमल उभार...
उस अमर्यादित भीड़ के दबाव को सहने के आदी नहीं....
इसलिये हर जगह होती मेरी अलग कतार...
हर जगह मिलती मुझे वरीयता...
काश ...मैं इस लड़की होता...
और होता मैं सुन्दर...
क्योंकि इस रूप और यौवन की बदौलत ही...
मुझे पुरूषों से बेहतर समझा जाता...
मैं जानता हूँ कि वहाँ भी मेरा उपभोग होता...
मुझे कुचला जाता...
दबाया जाता...
मसला जाता...
लेकिन...
मुझे होता संतोष कि...
इस रूप औऱ देह की बदौलत मेरी कोई अहमियत तो है...
काश...मैं इक लड़की होता....
लेकिन...
मैं जानता हूँ कि...
लड़की होना आसान नही...
मैं नहीं सह पाता उन कष्टों को...
जो सहती है इक लड़की हर वक़्त...
फिर भी...
जाने क्यूँ लगता है बार-बार...
काश...कि मैं इक लड़की होता...
बहुत सुंदर। समाज की बुराई को आपने बहुत सुंदर तरीके से कविता मे लिखा है। बिल्कुल सच्ची बात है।
ReplyDeleteऐसी कविता मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी
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