भारत व्यर्थ के आशावाद में उलझा हुआ है। हिंदुस्तान के नेता यहां जिस तीखे अंदाज में बोलते हैं, पाकिस्तान की जमीन पर पहुंचते ही उनकी आवाज ठंडी हो जाती है। पता नहीं कौन सा अपनापन उमड़ आता है, किस तरह का दया भाव पैदा हो जाता है कि वे नरम पड़ जाते हैं। गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि मुंबई हमले की जांच को लेकर पाकिस्तान की मंशा पर भारत को कतई संदेह नहीं है परंतु परिणाम तो आना चाहिए। शायद उन्हें यह भय सताता रहता है कि ज्यादा सख्त हुए तो बातचीत टूट जायेगी। क्या बातचीत जारी रखने की जिम्मेदारी केवल भारत की है? पाकिस्तान चाहे जितना ऐंठता रहे, हम उसकी मनौवल करते रहेंगे, यह कौन सी बात है?
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