हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। हमारा चरित्र भी कुछ ऐसा ही हो गया है। हम अन्य शहरों में जब सपरिवार जाते हैं तो पत्नी बच्चों के साथ हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम खुद को उस शहर के मुताबिक ढालने का भी प्रयास करते हैं लेकिन जैसे ही अपने शहर की सीमा में प्रवेश करते हैं, फिर पुराने वाले हो जाते हैं। हम अच्छाइयां स्वीकार भी करते हैं तो अपनी सुविधा से लेकिन बुराइयां आसानी से और हमेशा के लिए पालन करने लग जाते है।
दो दिन की लगातार बारिश के बाद जैसे ही मौसम खुला शिमला में रंगीन छतरियों की रौनक के बदले माल रोड पर सैलानियों की चहल पहल नजर आने लगी। नगर निगम भवन के सामने माल रोड पर एक दुकान से अपने बच्चों के लिए पिता ने नाश्ते का सामान लिया और बच्चों के हाथ में प्लेट पकड़ा दी। ये सभी खाते-खाते आगे बढ़ गए। उनमें से एक बच्चे ने सबसे पहले नाश्ता खत्म किया और खाली प्लेट सड़क पर उछाल दी। कुछ आगे जाने पर पिता को ध्यान आया कि बेटे ने जूठी प्लेट सड़क पर ही फेंक दी है। बच्चों को वहीं रुकने की समझाइश देकर पिता पीछे लौटे और सड़क से प्लेट उठाकर एमसी भवन के बाहर सड़क किनारे रखे डस्टबीन में डाल दी। वापस बच्चों के पास लौटते वक्त उनकी आंखों में इस तरह के भाव थे कि उनके इस अच्छे काम को किसी ने नोटिस भी किया या नहीं।
कितना अजीब लगता है जब हम अपने किसी रिश्तेदार के यहां, किसी अन्य शहर या विदेश में कहीं जाते हैं तो हमारा व्यवहार बिना किसी की सलाह या समझाइश के खुदबखुद बदल जाता है। हम उस शहर के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश करने लग जाते हैं। इस बदलाव के पीछे दंड-जुर्माने का भय तो रहता ही है साथ ही अपने शहर, अपने परिवार की नाक नीची न हो जाए यह सजगता भी रहती है। इस दौरान हम अपने स्टेटस को लेकर इतने सतर्क रहते हैं कि पत्नी बच्चों से भी कुछ ज्यादा ही सम्मान से पेश आते हैं। कई बार तो हमारे बच्चे इस व्यवहार पर त्वरित प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर देते हैं।ऐसा क्यों होता है कि अपने घर, अपने शहर पहुंचते ही फिर हम पुराने ढर्रे पर चलने लगते हैं। विदेशों, अन्य शहरों की अच्छाइयों को हम अपने लोगों के बीच प्रचारित भी करते हैं तो उसमें मुख्य भाव यह दर्शाना ज्यादा होता है कि लोग जान लें हम उस जगह होकर आए हैं। शहर तो दूर हम अपने घर तक में उन बातों क ो लागू नहीं कर पाते जिनकी प्रशंसा करते नहीं थकते । पत्नी को जो सम्मान हम बाहर देते हैं, घर पहुंचने के बाद उसे हम कामकाजी महिला से ज्यादा कुछ समझते ही नहीं। हमारा रवैया ऐसा क्यों हो जाता है कि उसकी उपयोगिता ऑर्डर का पालन करने वाली से ज्यादा नहीं है। तब हम यह क्यों नहीं याद रखते कि वह सुबह से शाम तक शासकीय कार्यालय, बैंक आदि संस्थान में सेवा देने के बाद घर के सारे काम अपनी पीड़ा छुपाकर पूरे कर रही है। हमें हमारा सिरदर्द तो असहनीय लगता है लेकिन भीषण कमर दर्द के बाद भी रसोईघर में काम निपटाती पत्नी का हाथ बटाना तो दूर उसका दर्द पूछना भी जरूरी नहीं समझते।
शिमला में पॉलीथिन पर प्रतिबंध हमें बहुत अच्छा लगता है लेकिन अपने शहर में जाने के बाद फिर हम यह अच्छी बात भूल जाते हैं। पहले की तरह फिर पॉलीथिन में रात का बचा खाना आदि बांधकर खिड़की से ही सीधे कचरे के ढेर की तरफ उछाल देते हैं। तब हमें यह अहसास नहीं होता कि उस जूठन को खाने की कोशिश में गाय पूरी पॉलीथिन भी निगल जाएगी।
हमारे कारण उसकी आंतों में उलझी यही पॉलीथिन उसकी मौत का कारण भी बन सकती है यह भी भूल जाते हैं। हमारा चरित्र कुछ ऐसा हो गया है कि अच्छाइयां या तो हमें स्थायी तौर पर प्रभावित नहीं करती या फिर अच्छी बातों का पालन भी हम अपनी सुविधा या डंडे के जोर से ही करने के आदी हो गए हैं।
bahut achha mudda utahaya hai aapne.
ReplyDeleteaksar aisa hi hota hai ki bahar jane k baad hum bilkul badal jate hai,logo ko dikhane k lie hum shisht ban jate hain..
विषय तो आपने बहुत तगड़ा पकड़ा है, जब भी हम दूसरों के घर जाते हैं या कोई रिश्तेदार या दोस्त हमारे घर आते हैं तो हमारा स्वभाव थोड़ी देर के लिए बिल्कुल बादल जाता है, ख़ासतौर पर यह देखने लायक होता है जब हमारे सामने वाले का स्टेटस थोड़ा ज्यादा अच्छा हो तो हम कितने बनावटी हो जाते है और ज्यादा सभ्य दिखने की कोशिश करते हैं।
ReplyDeleteya,very righ,nice thoughts...!!
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