कांग्रेस पर भारतीय राज्य व्यवस्था को पंगु बनाने का आरोप लगा रहे हैं कुलदीप नैयर
भारत में लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था की तब एक बार फिर पोल खुल गई जब भोपाल गैस त्रासदी का ब्यौरा उजागर हुआ। न्यायपालिका, कार्यपालिका और नौकरशाही के बीच एक साठगांठ हुई थी। इन तीनों ने ही यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन को भारत से निकल जाने देने के लिए हाथ मिलाए थे। यूनियन कार्बाइड का ही वह गैस संयंत्र था जिसमें त्रासदी घटित हुई थी। उन्होंने उस क्षतिपूर्ति राशि को भी कम कराया था जिसकी कंपनी ने पेशकश की थी और न्यायालय के निर्णय में भी 26 वर्ष की देरी हुई। यह उस आपातकाल के समान ही था जो इससे एक दशक पूर्व तब लगा था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून, 1975 को राज्य व्यवस्था को तार-तार कर दिया था-यहां तक मूलभूत अधिकारों से भी इनकार कर दिया गया था। इस मामले में भी न्यायपालिका, कार्यपालिका और नौकरशाही निरंकुश सत्ता को न्याय संगत ठहराने के लिए पंक्तिबद्ध हो गई थी। लोकतांत्रिक संविधान की भी अनदेखी सी की गई थी। दरअसल राज्य के सभी अंग-प्रत्यंग निरंकुशता के थोपे जाने में भागीदार हो गए थे। दोनों ही अवसरों पर केंद्र और मध्य प्रदेश (जहां गैस संयंत्र स्थित था) में कांगे्रस ही सत्तासीन थी और दोनों ही अवसरों पर प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेसी ही आसीन थे अर्थात इंदिरा गांधी और उनके पुत्र राजीव गांधी। वे अपने आप में ही कानून हो गए थे और लोकतांत्रिक ढांचे पर गहरे घाव लगाए गए थे। कहा जा रहा है कि राजीव गांधी ने ही त्रासदी के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह से एंडरसन को जाने देने के लिए कहा था-जिसे एक शीर्ष कांग्रेस जन ने अमेरिकी दबाव की संज्ञा दी है। बाद में उन्होंने कैबिनेट से परामर्श किया। इंदिरा गांधी ने भी अपनी चलाते हुए ही आपातकाल थोपा था और उसके बाद ही कैबिनेट से परामर्श किया था। उस समय तक तो बिना अभियोग चलाए ही हजारों लोगों को हिरासत में लिया जा चुका था। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने प्रेस का भी गला घोंट दिया था। भोपाल के प्रसंग में मीडिया की भूमिका अपने कर्तव्य या दायित्व के परिपालन से भी बढ़कर ही रही है। उसके द्वारा अभियान न छेड़ा जाता तो सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस उस बचाव या सफाई देने की मुद्रा में नहीं आ पाती जिसमें आज उसे आना पड़ा है। ये दोनों ही घटनाएं यह दर्शाती हैं कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और नौकरशाही को तथास्तु की भाव भंगिमा अपनाने के लिए प्रेरित करने हेतु सेना को सामने नहीं आना पड़ा। जो प्रधानमंत्री सत्ता को अपने ही हाथों में केंद्रित कर सकते हैं वे सभी उन नियम-उपनियमों की धज्जियां उड़ा सकते हैं, जिनके तहत जवाबदेही आवश्यक है। इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन को सुप्रीम कोर्ट ने 5-1 के बहुमत से सही ठहराया था-उसी तरह जिस तरह से पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश मुनीर ने आवश्यकता के सिद्धांत द्वारा जनरल अयूब के सत्ता हथियाने को न्याय संगत ठहराया था। इस तरह के उदाहरण यह इंगित करते हैं कि जज भी नागरिक अधिकारियों के समान ही अन्य लिहाजों से प्रेरित हो बैठते हैं। मुख्य न्यायाधीश एएम अहमदी ने उस धारा को हल्का किया जिसके तहत भोपाल गैस त्रासदी के कर्ता-धर्ता बुक किए गए थे। वह थी भारतीय दंड संहिता की धारा 304, जिसमें 10 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। इसके बजाय उन पर धारा 304 ए लगाई गई, जिसके तहत अधिक से अधिक दो साल की सजा दी जा सकती है। जहां तक नौकरशाही का सवाल है (जिसमें सीबीआई भी शामिल है) वह भी असहाय और उपकारी सी ही हो गई, जो किसी भी उस दल की सेवा करने को तैयार है, जो सत्ता में आ जाता है। नौकरशाही वर्षो से आत्मा की आवाज तो दबा बैठी है ही, बिना भय अथवा पक्षपात के सेवा के उच्च आदर्शो को भी भुला बैठी है। इंदिरा गांधी ने जो अवैध आदेश जारी किए थे, नागरिक अधिकारियों ने उनका बिना हीला-हवाला किए पालन किया था। यही कारण है कि गांधीवादी जय प्रकाश नारायण, जिन्होंने राजनीति में नैतिकता के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया था, को नौकरशाही, पुलिस और सेना से यह आग्रह करना पड़ा था कि वे अवैध आदेशों का पालन नहीं करें। यह सब हास्यास्पद सा ही लगता है कि वही डिप्टी कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक जिन्होंने गैस त्रासदी के मामले में एंडरसन को गिरफ्तार किया था वे ही उन्हें अपने संरक्षण में हवाई अड्डे पर लेकर गए ताकि वह उसी विमान से उड़नछू हो सकें। यह सब अंतर मुख्यमंत्री के आदेशों का नतीजा था। दोनों में से किसी ने उस शपथ का ध्यान नहीं किया जो उन्होंने संविधान व देश की अखंडता के नाम पर खाई थी। मैने ऐसी ही घटनाएं पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में भी देखी हंै। वहां शासकों का महत्व है, नियमों का नहीं। सरकारी कर्मचारियों में जो नैतिक सोच थी वह भी अब मंद हो गई है और कई मामलों में तो मानसिक सोच से भी परे हैं। उनके समक्ष जो भी समस्याएं आती हैं उनसे निपटने की उनकी कार्यदिशा की कुंजी है किसी भी कीमत पर अपने पद पर बने रहने की आकांक्षा। स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि समग्र उपमहाद्वीप में सरकारी कर्मचारी निरंकुशता के उपकरण बनकर रह गए हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में जो लोग मान्य नियमों का उल्लंघन करते हैं वे साफ-साफ ही नहीं छूट जाएं, इसके बारे में आश्वस्त होने की एकमात्र राह जवाबदेही ही है। मैंने कभी नहीं देखा कि एक गलती करने वाला जज, एक दागी मंत्री अथवा अपराधी सरकारी कर्मचारी दंडित हुआ हो। वे एक ही कुनबे के सदस्य जैसे हैं, जो यदि कभी किसी न्यायाधिकरण के समक्ष किसी अभियोग के सिलसिले में उपस्थित हों तो भी बच निकलने के लिए सभी हथकंडे अपनाते हैं। इंदिरा गांधी के आपातकाल के तहत दो वर्ष के शासन के दौरान जो दमन और ज्यादतियां हुईं उनके लिए उन्हें कोई सजा नहीं मिली। एंडरसन के बच निकलने के बारे में राजीव गांधी से तो कोई सवाल तक नहीं किया गया। अब उनके सचिव पीसी एलेक्जेंडर कहते हैं कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी को निश्चय ही सूचित किया गया होगा। इतने वर्षो तक एलेक्जेंडर मौन क्यों साधे रहे? मुझे जिस बात को देखकर आघात सा लगता है वह है केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन लोगों को देखना जो आपातकाल का हिस्सा थे। प्रणब मुखर्जी, कमलनाथ, अंबिका सोनी उन लोगों में से हैं जो संजय गांधी के हाथों के उपकरण से थे। गृहमंत्री पी। चिदंबरम को प्रधानमंत्री ने मंत्रियों के समूह का प्रमुख नियुक्त किया है और वह भोपाल गैस त्रासदी की भी पड़ताल करेंगे। वित्त मंत्री के रूप में वही एक निर्णय को आगे बढ़ाने को प्रयासरत थे, जिससे डाऊ केमिकल्स (जिसने यूनियन कार्बाइड को लिया था) उसे जिम्मेदारी से मुक्त किया जा सके। हर आलोचक पर चीखकर सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी सत्ता की अकड़ को ही रेखांकित किया है। उसे दायित्व स्वीकार करना ही चाहिए और वह राष्ट्र से क्षमा भी मांगे। कांग्रेस को अपमानित होना तो सीखना चाहिए। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
साभार:- दैनिक जागरण
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