15.7.10

हमें बोलना आता है?

वैसे तो हम जन्म के एक डेढ़ साल बाद ही मा मा, पा पा, गा गा बोलना सीख गए थे लेकिन हम में से कई लोग पापा, मम्मी बन जाने के बाद भी कब, कहां, क्या, कितना बोलना और कब चुप रहना यह सीख नहीं पाते। कभी जब हमारा कोर्ट-कचहरी से वास्ता पड़े तो समझ आ जाता है कम से कम बोलना कितना फायदेमंद और निर्रथक बोलना कितनी परेशानी का कारण बन सकता है।
बंदरों के हमले से बचने के चक्कर में वो सज्जन सीढिय़ों के किनारे गिर पड़े थे। कुछ लोग उनकी मदद के लिए दौड़े । वहीं रहने वाले एक सज्जन घर की गैलरी से सारा नजारा देख रहे थे। उन्होंने पहले पूछा चोट ज्यादा तो नहीं लगी, फिर घुटने की चोट पर लगाने के लिए रुई और मरहम लेकर आ गए। यह सारी गतिविधि चल ही रही थी कि भीड़ में खड़े एक युवक ने सांत्वना देते हुए कहा यह अच्छा हुआ कि बंदरों ने काटा नहीं।
उसकी बात थी तो सही लेकिन आसपास खड़े लोगों ने उसे घूर कर देखा क्यों कि सांत्वना व्यक्त करने का यह अंदाज उन लोगों को ठीक नहीं लगा। एक ने तो तुरंत कह भी दिया कि एक तो बेचारा वह घायल आदमी वैसे ही दर्द से कराह रहा है और आप हैं कि कह रहे हैं अच्छा हुआ बंदरों ने काटा नहीं। इन दोनों के बीच तकरार की नौबत आए इससे पहले ही अन्य लोगों ने बात संभाल ली।
कितनी अजीब बात है न, जन्म के करीब एक साल बाद बच्चा मा मा, ना ना, पा पा जैसे शब्द बोलना सीख जाता है और कु छ ही वर्षों में फर्राटे से घरेलू भाषा सहित अन्य भाषाएं भी बोलने लग जाता है, लेकिन क्या वजह है कि हममें से ज्यादातर लोग उम्र के अंतिम पड़ाव तक यह सीख ही नहीं पाते कि कब, कौन से शब्द बोलना और कहां चुप रहना है। समझदार आदमी वही होते हैंं जो विवादास्पद मामलों में देश, काल, परिस्थिति और खुद की स्थिति का आकलन कर चुप्पी साध लेते हंै।
बढ़ती महंगाई के इस जमाने में हमें पेट्रोल, कुकिंग गैस, खाने की चीजों के बढ़ते दाम की चिंता तो है, इन सारी चीजों में हम किफायत बरतते हैं लेकिन शब्दों की फिजूलखर्ची के मामले में हम किसी बिगड़े नवाब से कम नहीं। आपातकाल में जरूर बोलने पर पाबंदी लगी थी। उस बात को भी 33 साल हो गए। शब्दों पर चूंकि कोई टैक्स भी नहीं लगता इसलिए बिना आगा-पीछा सोचे मन में जो आता है बोलते रहते हैं। जब आपातकाल लगा हुआ था तब कु छ भी बोलने से पहले दस बार सोच लेते थे कि कहीं मुंह से ऐसा कुछ न निकल जाए कि बेमतलब जेल की हवा खानी पड़ जाए।
गीत तो यह है कि 'जो तुम को हो पसंद वही बात कहेंगेÓ, लेकिन हम अपनी कहने में जितनी उदारता बरतते हैं दूसरे को सुनते वक्त उतना संयम और साहस नहीं दिखा पाते। कारण यह है कि हमें मीठा खाना, मीठा सुनना ही अच्छा लगता है। यह तो भला हो डायबिटीज का कि लोगों को मजबूरी में मीठे से परहेज करना पड़ रहा है। फिर भी अपने विषय में कड़वा सुनना दिल वालों के बस की ही बात है। जो लोगों की बात सुनने जितना संयम भी नहीं दिखाता उसे लोग मन ही मन नकार देते हैं।
जब आपकी बात कोई पूरी सुनता है तो हममें भी यह धैर्य होना ही चाहिए कि हम सामने वाले को इत्मीनान से सुने। हम में चूंकि धैर्य नहीं रहता इसलिए या तो हम पूरी बात सुनते नहीं या पहले से ही सामने वाले के संबंध में धारणा बना लेते हैं जो बाद में गलत साबित होने पर मन ही मन पश्चाताप के अलावा हमारे सामने कोई चारा भी नहीं बचता। इस पश्चाताप की आग में झुलसने से बचने का वैसे तो आसान तरीका हम सब को पता भी होता है लेकिन हम साफ मन से माफी मांगने या जो मन में धारणा बना ली थी वह सच्चाई कहने का साहस भी नहीं जुटा पाते।
कब बोलें, कब चुप रहें, अनर्गल न बोलें, बोलते वक्त वाणी में संयम किस तरह रखें, गुस्से में, ऊंचे स्वर में न बोलें, जितना पूछा जाए उतना ही बोलें आदि सुनने और बोलने के फायदे क्या हो सकते हैं यह कोर्ट में किसी मामले की सुनवाई क ा साक्षी होने पर समझ आ सकता है। दोनों पक्षों को अपनी बात कहने, तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने का पर्याप्त मौका देने के बाद ही न्यायाधीश अंत में फैसला सुनाते हैं। ज्यादातर मामलों में यह फैसला दोनों पक्षों को मान्य भी होता है।
फैसला मान्य करने वाले दोनों पक्षों में से एक पक्ष फैसले से असंतुष्ट हो सकता है लेकिन उसे भी यह संतोष रहता है कि उसे इत्मीनान से सुना गया। और हम लोग हैं कि किसी का काम करना तो दूर उसे इत्मीनान से सुनते भी नहीं। जाहिर है ऐसे में वह व्यक्ति हमारी तारीफ तो नहीं करेगा।

2 comments:

  1. हम अपनी कहने में जितनी उदारता बरतते हैं दूसरे को सुनते वक्त उतना संयम और साहस नहीं दिखा पाते।
    सही बात। धन्यवाद।

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