19.7.10

मंहगाई डायन खाय जात है


फिल्म 'पीपली लाइव' का गाना 'मंहगाई डायन खाय जात है',आजकल धूम मचाये हुए है। मंहगाई से समाज का हर वर्ग परेशान है। सच्चाई यह है कि किसी भी शहर और गाँव में आम लोगों का जीना मुश्किल हो गया है। खुशफ़हमी यह है कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ गयी है, लेकिन आम आदमी को खाने के लिए बहुत जुगत करनी पड़ती है। लोग सरकार के खिलाफ अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं। मगर कोई संगठित आवाज़ नहीं निकल रही। कहीं से कोई सार्थक आन्दोलन उठता नहीं दिख रहा, ऐसे समाज को भला जिंदा समाज कैसे कहा जा सकता है? आज जिस स्तर पर मंहगाई दर है, वह अचानक नहीं बढ़ी है। खाने-पीने में चावल-गेंहू और दाल ज़रूरी है, लेकिन इनके उत्पादन में वृद्धि के बजाये गिरावट हो रही है।

हजारों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है और लोग भोजन को तरस रहे हैं, इस से दुखद बात और क्या होगी? सब्जियों के दामों में जो आग लगी है, उसकी वजह से यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि रात को क्या बनाया जाये और सुबह को क्या खाया जाये।

७० के दशक में मशीनों को कारखानों में बढ़ावा देने पर मजदूरों पर संकट आ गया था, उस वक़्त मनोज कुमार की फिल्म का गाना 'मंहगाई मार गयी' बच्चे-बच्चे की ज़बान पर चढ़ा हुआ था। आज फिर वही स्थिति है। ऐसा लगता है सरकार मंहगाई को लेकर बिलकुल भी गंभीर नहीं है। पिछले चुनाव के दौरान सभी दलों ने अपने घोश्डा पत्रों में मंहगाई पर काबू करने की बात लिखी थी। लेकिन तमाम पार्टियों ने इसे महज़ रस्म अदायगी के तौर पर लिया।

दूसरी तरफ हमारे विरोधी दल हैं , जो सिर्फ शहर बंद करने को ही मंहगाई से लड़ने का हथियार समझ बैठे हैं। लेकिन इस समस्या का सही समाधान सुझाने में नाकाम हो रहे हैं। टीवी कैमरों के आगे बंद और प्रदर्शन करने से मंहगाई कम नहीं की जा सकती। अगर सरकार इमानदारी से काम करे तब आम आदमी को काफी राहत मिलेगी।

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