मध्य भारत का यह नक्सल प्रभैत खेत्र जहा बिजली, पीने का पानी, पाठशाला, अस्पताल और रोड आज भी नहीं बहाए जा सके है. यहाँ आज भी आधुनिक भौतिकवाद प्रवेश नहीं कर सका है. जबकि यहाँ ठेके तो सभे कम के निकले जाते है और सरकार तथा ठेकेदार मिल बात कर पैसा खा जाते है, कारण नक्सली सरकार के हर कम का विरोध करते है, अन्दर घुसने पर एक वीरान सी नदी मिले जहा पानी भरा था अधिक गर्मी के कारण प्यास अधिक लग रही थे जैसे ही मै पानी पीने के लिए आगे बाधा मेरे साथ के स्थानीय व्यक्तियों ने ततकाल रोक दिया और कहा की यहाँ का पानी मत पीना क्योंकि इसे पीने से मलेरिया होता है. मानी लाख समझाने की कोशिश की लेकिन उन्होंने दावा किया की यदि यहाँ के पानी की जाँच कराइ जाए तो यह बात सिद्ध भी हो जाएगी.
अबुज मढ़ या माढ़ यहाँ के स्थानीय लोग इसे कहते है, घनघोर जंगल में बसे ये आदिवासी आज भी भोजन के लिए जंगली जानवर का शिकार कर भोजन की व्यस्था करते है,
हर विकास के बात का विरोध करने वाले नक्सलियों ने यहाँ तक पहुचने वाली सड़क को जगह जगह से खोद डाला है, जिसके यहाँ कोई भी चार पहिया वाहन वहां घुस ही नहीं सकता. जमीन में जगह जगह माइंस बिछाई गई है. इसलिए यहाँ संभलकर चलना पड़ता है.
आगे हमें आदिवासियों का गाँव मिला इनके गाँव में मुसिल से चार या पांच घर शामिल होते है बाकी हज़ार फीट की दूरी के बाद ही इक्का दुक्का घर मिलते है,
सुबह से लेकर शाम तक ये लोग खुद की बने दारु पीते है जो ताड़ और सल्फे के पदों से निकली जाती है, महुआ की शराब भी वे लोग बनाते है
ये लोग अजनबियों से बात तक नहीं करते यह इनका शांत और शर्मीले स्वाभाव के कारण है,सहकारी उचित मूल्य की दूकान यहाँ से चुदः किलोमीटर दूर है ये लोग चावल के लिए नारायपुर जाते है. इनको मिलने वाला ३५ किलो का चावल स्वयं के लिए पर्याप्त है लेकिन रात में नक्सली यहाँ आते है और जोर जबरदस्ती से इनसे चावल और मुर्गा ले जाते है नही देने पर मरते है,
ठीक इसके विपरीत सी आर पी ऍफ़ के जवान दिन में आकर कहते है की नक्सलियों की मदद क्यों करते हो ?
लेकिन ये आदिवासी यहाँ से जाना भी नहीं चाहते कहते है हम तो यही मस्त है, कुछ जागरूक आदिवासी कहते है हम है भी तो जाए कहा ?
इस पूरे क्षेत्र में सरकार पूरी तरह से असफल है. यहाँ पर केवल और केवल नक्सलियों का ही राज है, म न रे गा जैसी जन हित की योजना फॉर भला यहाँ कैसे चल सकती है. लेकिन एकता की बात यहाँ के लोग हर पल और हर छड अपनाते है. वहा जब किसी के खेत में मिटटी आदि डालने का कम होता है तो पूरा गाँव उस काम को करता है फिर काम समाप्त होने के बाद सभी को खेत मालिक की तरफ से तीन दिन तक खाना खिलाया जाता है जिसे यहाँ की भासा में लेउर जावा कहते है जिसमे सूअर का मांस और सल्फी छककर खिली और पिलाई जाती है,
रस्ते में कंडोम मिलने पर मैंने स्थानीय साथी से पोछा की क्या ये आदिवासी कंडोम जैसी छीज का भी इस्तेमाल करते है तो उन्होंने बाते की नहीं यहाँ उन्मुक्त सेक्स है और जो रसे में पड़ा कंडोम है वह तो किसे स्वास्थ्य कर्मी को बटने मिला होगा जो यहाँ फेककर चला गया है.
सौ से ज्यादा का रुपया दिखने पर ये लोग बड़े आश्चर्य से देखते है, यहाँ पर जाकर यह कटाई नहीं लगता की यहाँ की सरकार भारत के ही सरकार है बल्कि एक अजीब से भय के बीच ऐसा लगता है की पीछे से कोई नक्सली अभी आ जाएगा और पकड़ कर ले गेगा, हलाकि स्थानीय पत्रकार ने बताया की एक दो बार किसी पत्रकार को वे पकड़कर जरूर ले गए लेकिन उसे जंगल में दो तीन दिन घुमाने के बाद छोड़ दिया.
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