14.8.10

पीपली [लाइव] - उम्मीद से कम

पीपली [लाइव] एक छोटे गांव के उन दो किसान भाईयों की कहानी है जिनकी ज़मीन बैंक लोन न चुकाने के चक्कर में हाथ से निकल जाती है। कहीं से उन्हे पता चलता है कि आत्महत्या करनेवालों को सरकार एक लाख रुपए का मुआवज़ा दे रही है। यहीं से वो कहानी शुरू होती है जो मीडिया के लिए मसाला है और नेताओं के लिए राजनीति करने का ज़रिया।


क्यों देखें:-
कहानी का एक-एक कलाकार अपने आप में पूर्ण है, जिस कोलाज़ पर फ़िल्म की शूटिंग हुई है वो पूरी तरह से असली लगता है। संवाद आम ज़िंदगी के लगते हैं। डायरेक्टर अनुषा रिज़वी ने हर कलाकार को मौका दिया है और सबने मुक्कमल अदाकारी पेश की है।
मीडिया, ब्यूरोक्रेसी और पॉलीटिक्स पर चटकारे लेनेवाले प्रहार हैं जो दर्शकों को सोचने पर तो मजबूर नहीं करते, हां हंसा ज़रूर जाते हैं। अगर इनकी खिल्लियां उड़ते देखना चाहते हैं जो फ़िल्म देखने ज़रूर जाएं।
नत्था के लिए नहीं अम्मा को देखने जाएं जो पूरी फ़िल्म में बिस्तर पर लेटी रहती हैं लेकिन उनके संवाद को पेश करने का अंदाज़ निराला है, आप हंसे बिना नहीं रह सकते।
कहानी में एक रोल है होरी महतो का, ये एक किसान है जो भूखमरी से मर जाता है। लेखक और निर्देशक अनुषा ने इसे बिना कुछ कहे बड़े ही अच्छे तरीके से पेश करते हुए समाज को एक संदेश दिया है।

क्यों न देखें:-
आपने फ़िल्म का जितना प्रोमो देखा है, फ़िल्म उतनी ही है, उससे ज़्यादा कुछ नहीं लगती। अधिकतर सीन जो प्रोमो में दिखते हैं, फ़िल्म में नहीं मिलते जैसे रिपोर्ट कुमार दीपक का अम्मा से बात करना और अम्मा का अपनी बहू को कोसना।
फ़िल्म की कहानी दमदार है लेकिन इस पर आधे घंटे का एक सीरियल बन सकता है, एक आर्ट फ़िल्म बन सकती है लेकिन कहानी में छौंक लगा-लगाकर इसकी गंभीरता को ख़त्म कर दिया गया है। शायद यही वजह है कि ये फ़िल्म परम्परागत 2.5 या 3 घंटे की नहीं बनी। कहानी को खींचते-खींचते 1 घंटे 45 मिनट तक पहुंचाया गया है।
कई जगह कहानी अचानक रुक जाती है। बोरिंग लगने लगती है। दर्शकों की नज़र स्क्रीन से हट जाती है और अचानक ही एक मसाला सामने आ जाता है।
महंगाई डायन खाय जात हैइस गाने ने बहुत धूम मचा रखी है, लेकिन फ़िल्म में कहीं भी महंगाई का ज़िक्र नहीं है। महंगाई से जुड़ा एक सीन नहीं है ऊपर से गांव में मेला लगता है तो लोग अच्छी-ख़ासी ख़रीददारी करते हैं। ऐसे में बीच में अचानक से ये गाना आता है और अचानक से चला जाता है। कुल मिलाकर इस गाने को फ़िल्म में डालकर अमीर ख़ान ने फ़िल्म को बेचने की कोशिश की है।
मेरी राय:-
ऐसा लगता है कि अगर ये कहानी प्रकाश झा के पास होती तो वे इससे कहीं बेहतर फ़िल्म बनाते। हॉल में ऊंचे दाम पर टिकट ख़रीदकर इस फ़िल्म को देखना फ़िजूल है। या तो टीवी पर आने का इंतज़ार करें या डीवीडी पर देख लें।
रेटिंग:-
3 स्टार्स

1 comment:

  1. आशा है पीपली में छत्‍तीसगढ़ akaltara.blogspot.com पर देखना आपको रोचक लगेगा.

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