रैन कभी ना होय
क्योंकि रैन होते ही बिछुड़ जाते है वे
देहरी पर बैठी रूपाजीवा भी
सुबह की धूप में क्लांत-सी
विनती करती है
रैन कभी ना होय
क्योंकि रैन होते ही मिलन होता है
एक के बाद एक मिलन
मिलन अनचाहा,मिलन जुगुप्सा भरा
देहरी पर बैठी वह
पथिकों के दृष्टि कटाक्षों से निरपेक्ष
चेष्टा करती है भुलाने की विगत रैन को
तथा ढेर से रस-लोलुपों को
करोड़ों वर्षों की आयु वाले उस बूढ़े को
जो रह गया है
वासना के अंतिम स्फुरण से स्पंदित कंकाल
उरोजों पर सिर रखकर सिसकता है जो
कि उसे चाहिए स्नेह
कि उसकी पत्नी है कर्कशा
एक आता है भेड़िये सा लार टपकाता
बस घूरता ही चला जाता है
सुलगती आँखें ,झुलसता कंठ लिए
नोचता खसोटता
और विगत रात वह नंपुसक मध्यप
चिल्ल पों मचाता
उठा लेता है सर पर समूचा परिवेश
और फैल जाता है फिर
जैसे पड़ा हो शैया पर अपनी पत्नी की
आह; कितना घिनौना,कितना वीभत्स
वह एक मात्र क्रिया
वह एक नौसर्गिक क्षण
नर-नारी के मध्य साझा आल्हाद का
पुरुष ने बना दिया व्यापार
तथा स्त्री को एक आखेट,एक पात्र
कल्पित वासना की वेदी पर दी जाने वाली बलि
नारी से आखेट बनकर भी आनंद का नाटक आपेक्षित
कुचले जाकर भी जिसे चाहिए मुस्काराना
निपटते ही मुंह फेर लेने वालों के प्रति
कृतज्ञता ज्ञापन का अभिनय
हाय यह सब कितना घिनौना
देहरी पर बैठी वह
सुबह की धूप में
करती है चेष्टा भुलाने की
विगत रैन
तथा करती है विनती
आगामी रैन कभी ना होए
Email: | godharavs@hotmail.com |
---|
(सेवानिवृत डॉक्टर )
कोटा,राजस्थान
डॉ.साहब,
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता लिखी है। बधाई।
मैं अलसी की जागरुकता पर काम कर
रहा हूँ।
डॉ.ओ.पी.वर्मा
280-ए,तलवंडी, कोटा (राज)
http://flaxindia.blogspot.com