विष्णु खरे की भडास और हिंदी की गरिमा का प्रश्न
विष्णु खरे ने जनसत्ता में 10 और 11 अगस्त को जो कुछ लिखा है उससे और कुछ हुआ हो या नहीं हिंदी की गरिमा को ठेस लगी है. लगभग अराजक तरीके से राय-कालिया प्रश्न को अतिरेकी वक्तव्यों के साथ पेश करते हुए वे यह कह बैठे कि यह महाभारत है और जो उनके (विष्णु 'कृष्ण'?) साथ नहीं हैं वे कौरव दल (राय 'दुर्योधन' ?) के हैं. बगैर सिर पैर के वाक्यों और दक्षिण एशिया के समाज के बारे में सरलीकरणों से लदे इन लेखों में व्यक्तिगत आक्षेपों की ऐसी झडी लगा दी गई है कि पाठक यह समझ ही नहीं पाता है कि मुद्दा क्या है. अब इस वाक्यों को देखिए- " ...कैरियर को गतिशील बनाने के लिए संपादकों, आलोचकों, सहधर्माओं, प्रकाशकों, प्राध्यापकों और निजी तथा सार्वजनिक साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों के बीच कुछ ज्यादा ही सक्रिय है- यद्यपि यदि पुरूष लेखक वैसा करते हैं तो स्त्रियां क्यों न करें, लेकिन दक्षिण एशिया में औरत होने की ऎसी ट्रेजिडी है नीच '- और मैं समझता हूं कि नारी गरिमा के लिए कहीं भी अशोभनीय है और नैतिक रूप से संदिग्ध है. महिला लेखक कम से कम पुरूष लेखकों के पतन का अनुकरण न करें."
आप सिर धुनते रह जायेंगे और आपको यह समझ में नहीं आयेगा कि इस कथन को राय के कथन से कितना अलगा कर देखा जा सकता है. अंतर है भी तो कितने का?
अगर इस कथन को उनके उस कथन से जोड कर देखा जाए जिसमें उन्होंने हिंदी के पूर्वांचल (बिहार-उत्तर प्रदेश) के युवा लेखकों के खिलाफ अपनी भडास निकाली है- " दुर्भाग्यवश अब पिछले दो दशकों से हिंदी के पूर्वांचल से अत्यंत महात्वाकांक्षी, साहित्यिक नैतिकता और खुद्दारी से रहित बीसियों हुडकूलल्लू मार्का युवा लेखकों की एक ऐसी पीढी नमूदार हुई है जिसकी प्रतिबद्धता सिर्फ कहीं भी और किन्हीं भी शर्तों पर छपने से है."
क्या बच जाता है कहने को?
यह बहुत अच्छी बात है कि खरे साहब को वेश्या गमन की जरूरत नहीं पडी लेकिन इस बात को इस प्रसंग में लाने का क्या कोई औचित्य है?
हिन्दी से जुडे तमाम संगठनों के बारे में उनकी राय भी अतिरेकी है- "दक्षिण एशिया के वर्तमान सांस्कृतिक, नैतिक और आध्यात्मिक पतन के लिए मुख्यत: हिन्दी भाषी समाज यानी तथाकथित हिन्दी बुद्धिजीवी जिम्मेदार और कसूरवार है."
और भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिसकी चर्चा इस भडास निकालने वाले आलेख में हैं. हिंदी का आम पाठक इन चर्चाओं से व्यथित होगा. कहते हैं कि विभूति नारायण राय जब कपिल सिब्बल से मिलने गये तो उन्होंने सिब्बल साहब को याद दिलाया कि जब मंटो पर अश्लीलता का मुकदमा चलाया गया था तो सिब्बल के पिता ने उनका केस लडा था. मंत्री जी ने जो उत्तर दिया वह दिलचस्प था- "पर मंटो उपाचार्य नहीं थे."
विष्णु खरे एक पढे लिखे और सम्मानित पत्रकार-चिंतक हैं. एक आम हिंदी वाला जब यह कहता है कि हिंदी विभाग 'चकलाघर' और 'पुरूष-वेश्याओं' के अड्डे हो गये हैं तो उसकी झल्लाहट को, उसकी खीज को समझने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन विष्णु खरे जब इस बात को कहते हैं तो उसके निहितार्थ होते हैं. यह अकारण नहीं है कि अशोक बाजपेयी से लेकर विष्णु खरे तक नामवर सिंह की चुप्पी का उल्लेख कर उसे 'शर्मनाक' घोषित करते हैं. जिस तरह की भाषा का प्रयोग विष्णु खरे ने जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर किया है उसे किसी भी तरह से भाषा का नैतिक प्रयोग नहीं कहा जा सकता है.
किसी भी लोकतंत्र में गलती करने और माफी मांगकर भूल सुधार करने का सुयोग होना चाहिए. सिर्फ मृत लोग गलतियां नही करते. जिस तरह से छिनाल शब्द के अनुचित प्रयोग के कारण विभूति नारायण राय और रवीन्द्र कालिया के विरूद्ध लोगों ने विरोध प्रगट किया वह प्रमाणित करता है कि सब लोग सब कुछ बर्दाश्त नहीं करेंगे. लेकिन, यह क्या कि इस ओट में आप एक संपादक को हटाने की और हिंदी के एक विश्वविद्यालय से सभी नैतिकता वाले हिंदी लेखकों के बायकॉट करने वालों का गिरोह तैयार कर लें. और वह भी भद्दे और कुत्सित भाषा में अभियान चलाकर.
जनसत्ता ने इस पूरे मसले पर विरोध का जो अभियान चलाया उसका औचित्य हो सकता है, लेकिन अब इस प्रसंग को सही परिप्रेक्ष्य देने की जरूरत है. इस प्रसंग का जिस तरह एक राजनेता लाभ लेने की सोच सकता है वैसे ही यह सोचना कि जो हमारे दल के साथ मत दे रहा है वही सही है. 'बाकी सब पर नजर रखा जाना चाहिए' वाला विष्णु खरे टाइप सोच अराजक और विध्वंसकारी प्रवृत्तियों को बढावा देगा. इस तरह के प्रचारात्मक लेखन से जनसत्ता की छवि को ठेस पहुंचती है.
[पुनश्च: खरे साहब को लगता होगा कि सिर्फ वही लोग इस प्रसंग में रवीन्द्र कालिया के 'पक्ष' में हस्ताक्षर करेंगे जिन्हें वर्धा का टिकट कटाना है या ज्ञानोदय में छपने की भूख है. मैंने इस भद्दे प्रकरण में हस्ताक्षर करने का निर्णय विष्णु खरे का आलेख (प्रथम भाग) पढने के बाद लिया. मैंने ज्ञानोदय में कभी अपना कुछ छपने नहीं भेजा. एक उपन्यास का ड्राफ्ट भेजा जो दो साल तक ज्ञानपीठ में पडा रहा. विचार भी नहीं किया गया. बाद में एक अन्य प्रकाशक ने इसे छापा. महात्मा गांधी विश्वविद्यालय मैं कभी गया नहीं. राय से मेरा कोई परिचय नहीं है. मैंने यह सिर्फ एक अन्यायपूर्ण तरीके से किए जा रहे अभियान का विरोध करने के लिए किया है. हिंदी में लोकतांत्रिक स्पेस बना रहे और लोग खुल कर बोल सकें, प्रतिवाद कर सकें ऐसी भावना रखता हूं. विष्णु खरे को विद्वान व्यक्ति और बडा कवि मानता हूं. मेरे इस प्रतिवाद का अर्थ उनका असम्मान करना नहीं है.]
हितेन्द्र पटेल इतिहास विभाग, रवींद्र भारती विश्वविद्यालय, 56 ए, बी टी रोड, कोलकाता 60.
ph 09230511567
No comments:
Post a Comment