आपातकाल संबंधी दस्तावेज नष्ट कर दिए जाने पर आश्चर्य जता रहे हैं कुलदीप नैयर
यह है महज संयोग ही है कि 15 अगस्त से पूर्व एक सजग पत्रकार ने यह समाचार प्रसारित किया कि कांग्रेस ने जनवरी, 1977 की हमारी दूसरी आजादी से संबंधित सभी कागजात नष्ट कर दिए हैं। यदि इतनी आसानी से इतिहास का पुनर्लेखन करना संभव होता तो हिटलर और उसकी नाजी पार्टी ने जो अत्याचार किए थे उन्हें विश्व के स्मृतिपटल से मिटा दिया गया होता। यह विडंबना ही है कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में 15 अगस्त, 1947 को लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के रूप में जो पहली आजादी आई थी उसके सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को उनकी अनुयायी इंदिरा गांधी ने 28 वर्ष बाद 25 जून, 1975 को आपातकाल थोपकर तबाह कर दिया था। जब 1977 में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी को करारी शिकस्त मिली थी तो राष्ट्र ने दूसरी आजादी का उत्सव मनाया था। अपने कृत्यों पर पर्दा डालने के कांग्रेस के अजब ढंग है। गृह मंत्रालय का दावा है कि उसके पास तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद द्वारा आपातकाल घोषित करने से संबद्ध उद्घोषणा नहीं है, न ही उसके पास मिथ्या आरोपों के आधार पर हजारों लोगों को बंदी बनाने के निर्णयों से संबंधित कोई रिकॉर्ड है। उसके पास महत्वपूर्ण पदों पर दागी व्यक्तियों की नियुक्ति और हिरासत संबंधी विधि सम्मत व्यवस्थाओं के उल्लंघन का कोई रिकॉर्ड भी नहीं है। इससे तात्पर्य यह है कि 30 वर्ष अथवा उससे कम आयु के किसी व्यक्ति के लिए इस बारे में कोई ठोस सूचना प्राप्त कर पाना कठिन होगा कि उन काले दिनों में क्या-कुछ घटित हुआ था? हममें से अनेक को जयप्रकाश नारायण के साहस और नेतृत्व क्षमता का स्मरण है, जिन्होंने इंदिरा गांधी के कुशासन को चुनौती दी थी और अवहेलना तथा उल्लंघन का पथ अपनाया था। इसके बाद उन्हें बंदी बनाकर उनका उत्पीड़न किया गया। उन दिनों एमजी देवसहायम चंडीगढ़ के जिला मजिस्ट्रेट थे, जहां जयप्रकाश नारायण हिरासत में रखे गए थे। उन्होंने अधिकारियों का ध्यान जयप्रकाश के गिरते हुए स्वास्थ्य की ओर खींचा था। जैसा कि देवसहायम ने अपनी पुस्तक में लिखा है-इसके जवाब में तत्कालीन रक्षा मंत्री बंसीलाल ने कहा थे-उसे मरने दो। यह आश्चर्यजनक है कि आपातकाल से संबंधित महत्वपूर्ण दस्तावेजों के गुम हो जाने पर संसद में कोई हंगामा नहीं हुआ। न लालू यादव कुछ बोले और न ही मुलायम सिंह ने कुछ कहा। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के नेता भी इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोले, जो जेपी आंदोलन में शामिल थे। उन्होंने भी सरकार को कठघरे में खड़ा नहीं किया। गृह मंत्रालय ने बड़ी सहजता से खोए हुए दस्तावेजों की जिम्मेदारी भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार पर डाल दी। इसके विरोध में राष्ट्रीय अभिलेखागार का कहना है कि उसे इस तरह के कोई दस्तावेज संभालने के लिए दिए ही नहीं गए। यह आश्चर्यजनक है, क्योंकि आपातकाल के दौरान हुई ज्यादती की जांच करने वाले शाह आयोग ने अपनी कार्रवाई के अंतिम दिन कहा था कि वह सारा रिकॉर्ड राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा करा रहा है। शाह आयोग ने सौ बैठकें की थीं, 48,000 कागजात की पड़ताल की थी और दो अंतरिम रिपोर्ट पेश की थीं। स्पष्ट है कि साक्ष्य नष्ट करने की प्रक्रिया 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही शुरू हो गई थी। मुझे याद आता है कि शाह आयोग की रिपोर्ट की प्रतियां उस दुकान से गायब हो गई थीं जहां सरकारी प्रकाशन उपलब्ध थे। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट-जिसमें इस बल को राजनीतिज्ञों के दबाव से मुक्त करने के लिए प्रशंसनीय सिफारिशें की गई थीं, बट्टे खाते में डाल दी गई थी, क्योंकि यह आयोग जनता सरकार द्वारा गठित किया गया था। इंदिरा गांधी ने पुलिसकर्मियों के सम्मान समारोह का तब बहिष्कार कर दिया था जब उनके सहायक आरके धवन ने उन्हें बताया कि ये पदक आपातकाल में हुई ज्यादतियों को उजागर करने के उपलक्ष्य में दिए जा रहे हैं। इंदिरा गांधी के बुरे कामों के रिकार्डो को छिपाकर कांग्रेस उन्हें पुन: प्रतिष्ठित नहीं कर सकती। नि:संदेह इंदिरा गांधी ने अपने जीवन में अनेक महान कार्य किए थे और राष्ट्रवाद के प्रति उनके समर्पण ने देश को गौरवान्वित किया था, किंतु उनकी भी अपनी सीमाएं थीं। वह राजनीति से नैतिकता के निष्कासन की जिम्मेदार थीं और उन्होंने नैतिकता और अनैतिकता की महीन रेखा को भी मिटा दिया था। हम उन दिनों के कारनामों की अभी तक कीमत चुका रहे हैं। उनके पुत्र संजय गांधी ने संविधानेतर सत्ता स्थापित की थी और विपक्ष को कुचल दिया था। यही नहीं, उन्होंने भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों की अवमानना भी की थी और मनमाने फैसले सख्ती से लागू किए गए थे। यह भी दुखद है कि उनके आगे मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी झुक गया था। जो प्रणाली आपातकाल के दौरान पट्टी से उतर गई थी, वह अभी तक अपनी राह पर नहीं आ पाई। ऐसा होने का कारण है नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों को जवाबदेही से छूट। शाह आयोग ने जिन लोगों को दोषी पाया था उनमें से कोई भी दंडित नहीं किया जा सका। सच्चाई यह है कि जो आपातकाल के दौरान ज्यादतियों में लिप्त रहे थे, उन्हें न केवल बारी से पहले पदोन्नत किया गया, बल्कि उनकी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति भी की गई। शासकों को शाह आयोग के इस परामर्श पर ध्यान देना चाहिए कि यदि नौकरशाही के क्रियाकलाप के बारे में सरकार के दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जाए तो कुछ उपयोगी मकसद पूरा हो सकेगा। सरकार का बुनियादी दायित्व उन अधिकारियों को संरक्षण की गारंटी देना है जो उस आचरण संहिता से डिगने से इनकार कर देते हैं, जिसे अधिकारियों द्वारा ही नहीं, राजनेताओं द्वारा भी परिचालित किया जाना चाहिए। मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला गुम हुए रिकार्डो पर मौन रहे हैं। वह नेहरू-गांधी वंश के करीब हैं। फिर भी उन्होंने सूचना अधिकार की रूपरेखा को विस्तार देने का सराहनीय कार्य किया है। आपातकाल लागू करने की उद्घोषणा के बारे में राष्ट्रपति से उस पर हस्ताक्षर करने के लिए कहने से पूर्व कैबिनेट से भी सलाह नहीं ली गई थी। अगले दिन कैबिनेट की बैठक में इसकी पुष्टि की गई। यह बात समझ आती है कि गृह मंत्रालय इंदिरा गांधी को व्यक्तिगत तौर पर दोष दिए बिना इस बारे में स्पष्टीकरण नहीं दे सकता। वह तो न्यायालयों को भी बंद कर देना चाहती थीं, परंतु उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया, क्योंकि उन्हें आश्वस्त कर दिया गया था कि जज उनके अनुसार ही चलेंगे। ऐसा ही हुआ भी क्योंकि शायद ही कोई उच्च न्यायालय हो जिसने आपातकाल के दौरान कोई विपरीत निर्णय दिया हो। सर्वोच्च न्यायालय तक ने भी आपातकाल लागू किए जाने को 5-1 से सही ठहराया था। सत्य है कि यह सब अब इतिहास है, किंतु कांग्रेस इसका पुनर्लेखन तो नहीं कर सकती। सरकार और उसके नेताओं की असफलता को कभी भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। आने वाली पीढि़यों को यह जानना ही चाहिए कि कहां और कैसे देश के संस्थानों की स्वतंत्रता जोखिम में डाली गई थी और लोकतंत्र पटरी से उतरा था। (लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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