9.9.10

क्या भारत के कम्युनिस्ट बदलेंगे ?

         पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा गंभीर संकट में है। इस संकट का एक पहलू सांगठनिक है और दूसरा पहलू राजनीतिक है। सांगठनिक स्तर पर किस तरह के बदलाव की जरूरत है इसे वामदल अपने अनुभवों की रोशनी में दुरूस्त करें। इसमें दो चीजें ध्यान देने योग्य हैं। पहली चीज है भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को अपने फ्रंट के सहयोगी दलों के प्रति समानता और लोकतंत्र के आधार पर व्यवहार करने की आदत पैदा करनी होगी। पार्टी निर्देश का चक्कर चलाना बंद करना होगा। वामदल सिर्फ मोर्चा का हिस्सा रहेंगे और प्रशासन में सिर्फ माकपा की चलेगी यह नहीं हो सकता। यही बुनियादी वजह है जिसके कारण वामदलों में संकट के समय फूट नजर आती है। वाममोर्चा एक राजनीतिक मोर्चा है। उससे व्यवहार में भी राजनीतिक मोर्चा होना चाहिए। प्रशासन के कामकाज में भी वामदलों का ख्याल रखा जाना चाहिए। खासकर उन मंत्रालयों में जिन्हें माकपा चलाती है।
       दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव राज्य प्रशासन की कार्यप्रणाली में लाने की जरूरत है। राज्य के मंत्री प्रशासनिक नियमों और पब्लिक रिलेशन के आधार पर काम करें न कि पार्टी निर्देश के आधार पर। पार्टी के इशारे पर चलने के कारण मंत्रालयों में निकम्मापन, भाई-भतीजावाद और पक्षपात बढ़ा है। प्रशासनिक अक्षमता बढ़ी है।
       वाम मोर्चा सरकार के प्रति व्यापक असंतोष का तीसरा बड़ा कारण माकपा के कार्यकर्ताओं का स्थानीय पर अलोकतांत्रिक हस्तक्षेप है। इसके कारण दादागिरी की संस्कृति पैदा हो गयी है जिसे सामान्य भाषा में गुण्डागर्दी कहते हैं। सामान्य लोगों के निजी जीवन में पार्टी के लोगों का अहर्निश हस्तक्षेप ही है जिसके कारण समूचे राज्य में आम लोगों में व्यापक असंतोष पैदा हुआ है। इसके लिए वाकायदा भूल सुधार अभियान चलाया जाना चाहिए।
    जिन लोगों को पार्टी के कार्यकर्ताओं ने तकलीफें दी हैं उन्हें पार्टी की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी से हटाया जाना चाहिए और निचली ईकाईयां उत्पीडि़त लोगों के पास जाकर माफी मांगे। समाजवाद की उपलब्धियों को गुण्डागिरी के कारनामों और गलत पार्टी सदस्यों के कारण धूल में नहीं मिलाया जा सकता। इन गलतियों और घमण्ड का ही दुष्परिणाम है बड़े पैमाने पर बुद्धिजीवियों ने वाम का साथ छोड़ दिया।   
    इसके लिए सबसे पहले माकपा को अपने नेताओं के दिमाग की धुलाई करनी चाहिए। पार्टी में सर्वोच्च स्तर के अनेक नेताओं में बुद्धिजीवियों के प्रति संशय,अविश्वास, घृणा भरी हुई है। इस तरह के घृणा के पुजारियों को पार्टी पदों से मुक्ति दी जानी चाहिए। जो पार्टी नेता बुद्धिजीवियों के प्रति घृणा का प्रचार करता हो उसे नेतृत्वकारी भूमिका नहीं दी जानी चाहिए। यदि माकपा ऐसा कर पाती है तो बौद्धिकों में उसकी इमेज वापस लौट सकती है।      
       इसबार के विधानसभा चुनाव को ममता बनर्जी बनाम वाम या माकपा के बीच की जंग के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इसबार के चुनाव में दांव पर गरीबों की जमीन लगी है। जो लोग वाम से नाराज हैं वे गंभीरता से सोचें क्या व्यक्तिगत राग-द्वेष के आधार पर गरीबों के हितों और संपदा को दांव पर लगाया जा सकता है ? वाम यदि चुनाव हारता है तो यह तय है गांव के जिन गरीब किसानों को भूमिसुधार के लाभ मिले हैं,जमीन मिली थी वह जमीन एक ही झटके में उनके हाथ से नकल जाएगी क्योंकि कांग्रेस-तृणमूल कांग्रेस किसानों की जमीन छीनने के मामले में एकमत हैं।
    कांग्रेस सारे देश में नंगे तरीके से कारपोरेट घरानों के लिए किसानों की जमीन छीनने का रिकार्ड कायम कर चुकी है और देश के विभिन्न इलाकों में माकपा ने किसानों के संघर्षों में साथ दिया है, अनेक जगह अगुवाई भी की है। पश्चिम बंगाल में पुराने जमींदारों का ममता बनर्जी को एकजुट समर्थन मिला हुआ है और ये जमींदार अपनी खोई जमीन पाना चाहते हैं। जमींदारों के इस गठजोड़ को कईबार रंगे हाथों केशपुर वगैरह में देखा गया है। ममता बनर्जी वाम की गलतियों का फायदा उठाकर पश्चिम बंगाल के जमींदारों के जीवन में रैनेसां लाने जा रही हैं। वामपंथी दलों ,जमींदारों के विरोधियों और गरीब किसानों के पक्षधरों को इस मसले पर एकजुट होना चाहिए।
      पश्चिम बंगाल और उसके बाहर मध्यवर्ग के लोगों में माकपा के नीतिगत और व्यवहारगत आचरण को लेकर अनेक लोगों को शिकायतें हैं ,ये जेनुइन शिकायतें हैं। उन्हें कुछ बुनियादी आधारों पर दूर किया जाना चाहिए। इस क्रम में वाम को नए सिरे से एजेण्डा तय करना चाहिए। इसमें दो तरह का एजेण्डा हो सकता है पहला व्यवहारिक और दूसरा नीतिगत।
     व्यवहार के स्तर पर बुद्धिजीवियों का दिल जीतने के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर यूजीसी के नए वेतनमान और उससे जुड़ी सिफारिशों को समग्रता में अविलम्ब लागू किया जाना चाहिए। अभी सिर्फ वेतनमान लागू किया गया है, शिक्षकों की रिटायरमेंट की उम्र को 60 से बढ़ाकर 65 किया जाना चाहिए। इस काम में जितनी देरी होगी बुद्धिजीवियों में असंतोष और बढ़ेगा।
     दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि केन्द्र के बराबर मकानभत्ता  और यात्राभत्ता कोलकाता और पश्चिम बंगाल के शिक्षकों को भी दिया जाना चाहिए। वाममोर्चा सरकार यदि शिक्षकों को यूजीसी के नियमानुसार सुविधाएं नहीं दे पाती है तो यह तय है बड़े पैमाने पर शिक्षक और छात्र उनके साथ से चले जाएंगे। दूसरी बात यह भी कि आने वाली दूसरी पार्टी उन्हें वह सब देगी जो यूजीसी ने सिफारिश की है क्योंकि उन्हें वोट चाहिए। इसके अलावा शिक्षा में ड्रापआउट की समस्या को कम करने लिए शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर छात्रवृत्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए। खासकर गरीबों और लड़कियों के लिए एमए तक छात्रवृत्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए। सरकारी बसों,ट्राम और प्राइवेट बसों में न्यूनतम चार्ज पर विद्यार्थी पास जारी किए जाने चाहिए।
      वाम को अपना नया केन्द्रीय एजेण्डा बनाते समय नव्य उदार नीतियों के विरोध को केन्द्र में रखकर व्यापक मोर्चा बनाना चाहिए। इस मोर्चे में सिर्फ वाम दल ही न हों बल्कि गैर वाम मनोदशा और विचारधारा के नव्य उदार नीतियों का विरोध करने वालों को भी शामिल करना चाहिए। आज के दौर में मार्क्सवाद प्रधान एजेण्डा नहीं है। बल्कि नव्य उदार नीतियों के खिलाफ व्यापक मोर्चा ही लक्ष्य होना चाहिए। ममतापंथी लोगों को भी इस मोर्चे के प्रति आकृष्ट करने की जरूरत है । आम लोगों को बताने की जरूरत है कि ममता बनर्जी और उसकी पार्टी नव्य उदार नीतियों की अंध समर्थक हैं।
    नव्य-उदार नीतियों के खिलाफ व्यापक मोर्चे में विचारधारात्मक भेदभाव के बिना लोगों को शामिल किया जाना चाहिए। इसमें धर्मप्राण जनता से लेकर देशभक्तों के लिए जगह होनी चाहिए। अभी तक वाम मोर्चा के आधार पर आम लोगों को गोलबंद किया गया था अब लोकतांत्रिक हितों,मानवाधिकार रक्षा और नव्य उदार नीतियों के विरोध के आधार पर व्यापक फ्रंट बनाना चाहिए और इसके लिए ऊपर से तैयारियां आरंभ होनी चाहिए।
    वाम मोर्चा की दिक्कत यह है कि वह नव्य उदार नीतियों का सिर्फ वाम के आधार से विरोध करना चाहता है। वाम का आधार सीमित है वह ज्यादा दूर नहीं ले जाता। वाम के आधार को बृहत्तर राष्ट्रीय आधार बनाया जाना चाहिए। इसके लिए अलग से साझा मंच बनाया जाना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि नयी बदली परिस्थितियों में वामदलों को अपने कार्यक्रम,संगठन और मोर्चे की रणनीतियों को बदलना चाहिए। मुश्किल यह है कि वामदलों में,खासकर कम्युनिस्टों की कार्यप्रणाली में बदलाब बेहद धीमी गति से हो रहे हैं और इसके कारण सामयिक राजनीतिक यथार्थ में उन्हें करारे झटके झेलने पड़ रहे हैं। अलगाव का सामना करना पड़ रहा है। यह अलगाव कम हो सकता है बशर्ते कम्युनिस्ट अपनी कार्यप्रणाली को मौजूदा युग की गति के अनुरूप बना लें। वरना मौजूदा संकट उन्हें ले डूबेगा।    
       







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