आज सँवत्सरी है. सब मित्र-बन्धु-परिजन क्षमायाचना कर रहे हैं मुझे क्षमा दे रहे हैं. उनको प्रत्युत्तर में ’खमत-खामना’ कहने का मन भी नहीं बनता.
अपनी तरफ़ देख पा रहा हूँ कि किसी के लिये किसी प्रकार की कोई गाँठ नहीं है, किसी से दुश्मनी का भाव नहीं, किसी के प्रति हीनता/उच्चता का भाव नहीं तो क्षमा माँगकर उनको भ्रम में कैसे डालूँ.
दूसरी तरफ़ यह भी पाता हूँ कि किसीसे भी मुझे दु:ख/कष्ट नहीं मिला. कोई मुझे दुखी करे, इसकी संभावना भी बनती नहीं. सबकी शुभ-कामनाओं भरा भाव पाता हूँ, तो उनको क्षमा किस बात के लिये दूँ? बात बनती नहीं.
खमत-खामना की परम्परा को जब तक निभाता रहा, तब तक मन की गाँठे बनी ही रहती थी. शब्दों का आदान-प्रदान होता रहा. क्षमा न पाई, न दे पाया. भ्रम बना ही रहा. भ्रम की इस परम्परा को ढोते रहने का कोई कारण बचा नहीं. बल्कि यह भी लगता है कि परम्परा निभाने के नाम पर भ्रम का पोषण-संरक्षण ही चलता है. sadhak ummedsingh baid
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