23.10.10

राज्यपाल की गरिमा और राजनीतिक उठापटक

राजकुमार साहू, जांजगीर छत्तीसगढ़
भारत के संविधान में देश के राष्ट्रपति और सभी राज्यों के राज्यपालों को ही महामहिम की उपाधि मिली हुई है। इन पदों की गरिमा इसी बात से समझी जा सकती है कि देश की जनता में आज के बिगड़ते राजनीतिक माहौल में भी इन्हीं से ही आस बंधी रहती है और जब कोई नौकरशाह तथा चुनकर भेजे गए उंचे ओहदे पर बैठे नेताआंे द्वारा जनता की किसी बात का अनुसना किया जाता है तो इन बेबस अंतिम पंक्ति के लोगों को देश के इन्हीं महामहिमों से ही न्याय मिलता है, मगर जब इन्हीं संवैधानिक पदों पर बैठे राज्यपालों द्वारा एकपक्षीय राजनीतिक सोच के साथ काम किया जाए तो फिर इसे राजनीतिक कुंठा ही करार दिया जा सकता है। राज्यपालों के बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद पार्टी की विचारधारा से ओत-प्रोत नेताओं की नियुक्ति इस गरिमामय पद पर रोकने नीति नियंताओं और उन राजनीतिक दल के बड़े नेताओं को सोचने की जरूरत है। जब कोई राज्यपाल अनैतिक तरीके से निर्णय लेकर विपक्षी पार्टी को नुकसान पहुंचाने और जिस पार्टी से वह जुड़ा रहा, उसे लाभ पहुंचाने जैसी घिनौना करतूत करे तो फिर ऐेसे में कहीं न कहीं संविधान की गरिमा भी तार-तार होती है, जहां राज्यपाल को संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि उस अधिकार का बेजा फायदा उठाया जाए। राजनीतिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसिन करने के बाद किसी भी पार्टी का राजनीतिक पक्ष लेने से बचना चाहिए, लेकिन इस प्रवृत्ति पर लगाम लगने के बजाय यह फलसफा जैसे चल पड़ा है। हालात यह है कि कई बार ऐसी स्थिति निर्मित होने के बाद भी किसी तरह की कोई लक्ष्मण रेखा अब तक नहीं ख्ंिाची जा सकी है। राष्ट्रपति द्वारा हस्तक्षेप किए जाने से ही इन स्थितियों को निपटने में सहायक हो सकता है। हाल ही में कर्नाटक में जिस तरह राजनीतिक उठापटक चली और उसके बाद जिस तरह सरकार बचाने की कवायद चली, उससे तो पूरे राजनीतिक गलियारे में रस्सा-कस्सी का आलम रहा और मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा ने आलाकमान को आश्वस्त कर रखा था कि किसी भी स्थिति में कर्नाटक में पहली बार बनी भाजपा की सरकार नहीं लुढ़केगी। साथ ही भाजपा के बड़े नेता भी इस हालात से निपटने कर्नाटक में जमे रहे। भाजपा के वरिष्ठ नेता वंेकया नायडू ने मोर्चा संभालते हुए विधायकों के गिले-शिकवे दूर करने की कोशिश की और जब राज्यपाल हंसराज भारद्वाज के सामने विश्वास मत हासिल करने की बारी आई तो जैसे-तैसे भाजपा की सरकार बचती नजर आई। भाजपा ने विपक्षी पार्टी पर विधायकों को तोड़ने का आरोप लगाया। हालांकि जैसे ही विश्वास मत हासिल हुआ, वैसे ही भाजपा नेताओं ने चैन की सांस ली, लेकिन दूसरी ओर कर्नाटक के राज्यपाल ने विश्वास मत पूरी नहीं होने की बात कहते हुए मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा को दोबारा विश्वास मत हासिल करने कहा गया। इस निर्णय के बाद तो जैसे देश की राजनीति में उफान आ गया, उसका कारण था कि विश्वास मत हासिल होने के बाद भी राज्यपाल ने ऐसा निर्णय लिया। राज्यपाल द्वारा जिस तरह अपने संवैधानिक अधिकार का दुरूपयोग किया गया और जिस विचारधारा से वे जुड़े रहे, उस पार्टी का हिमायती करते नजर आए, इसे किसी भी स्थिति में ठीक नहीं कहा जा सकता। यहा बताना लाजिमी है कि कर्नाटक के राज्यपाल हंसराम भारद्वाज, केन्द्र की यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में विधि मंत्री रहे और कांग्रेस में कई उंचे ओहदे पर रहकर पार्टी के बरसों तक काम किया। कर्नाटक में जिस तरह निर्णय लिया गया, उससे तो ऐसा लगता है कि वे अभी भी कांग्रेस के पदाधिकारी हैं, न कि वे एक संवैधानिक पद पर आसिन हैं, जिसकी अपनी गरिमा है और प्रदेश की जनता को सबसे ज्यादा विश्वास इसी पद से होता है। किसी भी राज्य के राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी दुरागह के नीति के अनुसार निर्णय ले, जिससे प्रदेश का विकास हो और जनता का भला हो, लेकिन कर्नाटक में कुछ दिनों पहले जो हुआ, वह इस गरिमामय पद के लिए एक और काला धब्बा ही कहा जा सकता है। राज्यपाल के निर्णय ने भाजपा को सकते में डाल दिया, क्योंकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी.एस. येदुरप्पा पहले रेड्डी बंधुओं के चलते परेशान रहे और बाद में किसी तरह सुलह होने के बाद कई महीनों से कर्नाटक में मचा राजनीतिक भूचाल शांत हुआ, किन्तु बाद में भाजपा के कुछ विधायक, असंतोष जाहिर करते हुए येदुरप्पा सरकार की खिलाफत करने लगे। इन कारणों से भाजपा का पूरा कुनबा हिल गया, क्योंकि कर्नाटक में भाजपा की पहली बार सरकार बनी है, जिसे वे किसी भी तरह से हाथ से जाने देना नहीं चाहते और भाजपा नेताओं द्वारा हर तरह से सरकार बचाने की कवायद की गई। बीते छह माह में कर्नाटक में राजनीतिक उठापटक का दौर चल रहा है, इससे प्रदेश के विकास पर असर पड़ना स्वाभाविक है। ऐसे में जनता भी चाहती है कि किसी तरह यह राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म हो। दिलचस्प बात यह है कि राज्यपाल के आदेश के एक दिन बाद येदुरप्पा सरकार ने निर्धारित विश्वास मत एक बार फिर हासिल कर लिया। इसके बाद राज्यपाल के निर्णय का जिस तरह किरकिरी हुई, उससे लोगों को एक बार फिर सोचने पर विवश कर दिया कि क्या संवैधानिक अधिकार का इसी तरह गलत प्रयोग होगा और इसे आखिर रोकने कोई प्रयास क्यों नहीं हो रहा है। इसके लिए सरकार में बैठे लोगों को ही विचार करना होगा, साथ ही जनता को अपने हितों को लेकर सरकार पर दबाव बनाने की जरूरत है कि किसी भी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े नेता की राज्यपाल के रूप में ताजपोशी न हो। अब तक वरिष्ठ नेताओं को जिस तरह से एकाएक राज्यपाल बनाया जाता रहा है, उससे तो यही बात पता चलता है कि उन नेताओं को किसी तरह खुश करने की कोशिश की जाती है, लेकिन यहां सवाल यही है कि संवैधानिक पदों पर इस तरह के हालातों से उबरने की जरूरत है। ऐसे में भला किसी को इस तरह खुश करने का क्या औचित्य ? कर्नाटक में राज्यपाल की भूमिका को देखते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवानी ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह ने उन्हें वापस बुलाने की मांग भी की, लेकिन इस मामले में प्रधानमंत्री ने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है। इधर भाजपा की सरकार ले-देकर बच गई, लेकिन यह भी चर्चा है कि क्या कर्नाटक की भाजपा सरकार में स्थिरता अब कायम हो पाएगी ? जो अब तक मुमकिन नहीं हो सका है। एक अरसे से प्रदेश में राजनैतिक रूप से जो काला बादल छाया हुआ है, वह जितना जल्दी हटेगा, उतना ही कर्नाटक के विकास में सहायक साबित होगा। राज्य में भाजपा काबिज तो हो गई है, लेकिन जिन बागी विधायकों ने मोर्चा खोला था, वे फिर कब पटखनी दे जाए, कहा नहीं जा सकता। पहले भाजपा में सरकार बचाने को लेकर घमासान मचा था, जब जैसे कांग्रेस को झटके पर झटके लग रहे हैं। पहले कर्नाटक की येदुरप्पा सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया, इसके बाद अब कांग्रेस के विधायक इस्तीफे दे रहे हैं, वह कांग्रेस के लिए संगठनात्मक दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता। यहां पर यही कहा जा सकता है कि जो कलह, पिछले कई महीनों से भाजपा में जारी था, लगता है कि वह अब कांग्रेस के विधायकों और नेताओं तक घर कर लिया है। पहले भाजपा, कांग्रेस पर यह आरोप लगा रही थी कि वे पार्टी के विधायकों को तोड़ने का प्रयास कर रही है, लेकिन अब सरकार के विश्वास मत हासिल होने के बाद कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे देने से स्थिति कर्नाटक में उलट नजर आ रही है। कर्नाटक की राजनीति से इतर यहां फिर उसी मुद्दे पर विचार करने की जरूरत है, जिसमें राज्यपालों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकार का बेजा इस्तेमाल किए जाने के मामले आए दिन सामने आते जा रहे हैं। कर्नाटक में जो हुआ, उससे पहले के हालात देखें तो साल भर पहले झारखंड में विधानसभा चुनाव के बाद खंडित जनादेश सामने आया और उसके बाद जेएमएम के मुखिया शिबू सोरेन ने मुख्यमंत्री बनने की नियत से सरकार बनाने की पेशकश की। यहां अल्प सीट के बाद भी तात्कालीन राज्यपाल सिब्ते रजी ने शिबू सोरेन को सरकार बनाने का न्यौता दिया, उसके बाद तो राज्यपाल की गरिमा और उनके संवैधानिक अधिकार तथा हस्तक्षेप को लेकर एक बार देश में बहश छिड़ गई। इस बीच राज्यपालों द्वारा इससे पहले किए गए ऐसे कृत्यों की चर्चा होनी शुरू हो गयी। जानकार बताते हैं कि आंध्रप्रदेश में राज्यपाल द्वारा पहले भी राजनीतिक विचारधारा के तहत या फिर कहें कि अपने व्यक्तिगत रूचि के आधार पर ऐसे निर्णय दिए जा चुके हैं। फिलहाल झारखंड में शिबू सोरेन को सरकार बनाने बहुमत साबित करने का समय मिला, लेकिन तय समय में राजनीतिक पार्टियों में किसी तरह का गठजोड़ नहीं हुआ और हालात यह बन गए कि बहुमत साबित करने में शिबू सोरेन नाकाम रहा। इस दौरान राज्यपाल के अधिकारों का दुरूपयोग को लेकर बहस का दायरा और बढ़ गया। झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का संकट इस तरह गहराया कि वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। बाद में एक बार फिर चुनाव हुआ, लेकिन फिर वही, खंडित जनादेश। इस बार झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा की जुगलबंदी के बाद सरकार बारी-बारी से चलाने पर सहमति बनी, मगर बाद में यह गठजोड़ टूट गया। आखिरकार भाजपा और जेएमएम ने मिलकर फिर सरकार बनाई। यहां केवल यही बात है कि आखिर क्यों राज्यपालों द्वारा अपने संवैधानिक अधिकार का बेजा इस्तेमाल किया जाता है, जिसके बाद उस गरिमामय पद पर दाग लगता है। कर्नाटक के राज्यपाल हंसराज भारद्वाज तो कानून मंत्री रहे हैं और उन्हें संविधान से मिले अधिकार बखूबी पता है, लेकिन उनके द्वारा जो निर्णय दिया गया, वह तो केवल राजनीतिक ही लगता है, वह कहीं से भी संवैधानिक नहीं लगता,। आखिर यहां सवाल यही उठता है कि कानून का ज्ञान होने के बाद भी उन्होंने ऐसा कदम क्यों उठाया, जिससे किसी सम्मानजनक पद की गरिमा को आघात लगे। इस तरह देखें तो कर्नाटक में भी अन्य राज्यों की तरह राज्यपालों के अधिकारों के दुरूपयोग के मामले में काला अध्याय जुड़ गया। ऐसे में अब चिंता का विषय यही है कि ऐसे कृत्यों पर कैसे लगाम लगाया जाए। जाहिर सी बात है कि अधिकांश राज्यों के राज्यपाल, इस संवैधानिक पद पर आने के पहले राजनीतिक दल के पदाधिकारी और उसकी सरकार में बड़े ओहदे पर रहे हैं। राज्यपालों की नियुक्ति में उन वरिष्ठ नेताओं को चुना जाता है, जो या तो पार्टी और संगठन में पहले से काम करते रहे, या फिर उन नेताओं को राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर आसिन कर दिया जाता है, जिन्हें सरकार में कहीं जगह नहीं मिलती। यह भी अक्सर देखने में आता है कि जब भी केन्द्र में सरकार बदलती है तो राज्यपालों के राज्यों की जवाबदारी बदल दी जाती है। अपने मन के मुताबिक राज्यपालों को राज्यों में भेजा जाता है। यूपीए सरकार के पहले एनडीए गठबंधन की सरकार में कुछ इसी तरह सरकार बनते ही राज्यपालों को दूसरे राज्यों में भेज दिया गया। यह सिलसिला यहां कहां थमने वाला था, जैसे ही यूपीए की सरकार बनी, कई राज्यपाल इधर से उधर किए गए। बाद में कुछ राज्यपालों की नियुक्ति समय का कार्यकाल पूरा हो गया तो फिर उन्हीं लोगों की ताजपोशी कर दी गई, जो पार्टी के लिए बरसों जुटे रहे। यहां एक बात और है कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर रहने के बाद जिस तरह से नेता सक्रिय राजनीति में वापसी कर लेता है, उसके कारण भी इस पद की गरिमा प्रभावित होती है। राज्यों में जब किसी तरह, हालात बिगड़ते हैं तो शासन व्यवस्था संभालने की जिम्मेदारी किसी भी राज्य के राज्यपाल की होती है। उन्हें संविधान से अधिकार मिले हुए हैं, ऐसे में संविधान सम्मत कार्य करने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। देश की जनता का जिस तरह से नेताओं से भरोसा उठ गया है, कहीं वैसे हालात इस पद के लिए पैदा न हो जाए। इस पर गहन विचार की जरूरत है, नही ंतो ऐसी स्थिति आने वाले दिनों में फिर निर्मित हो जाए, ऐसा कहना गलत नहीं होगा।

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