राज कुमार साहू, जांजगीर छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़ के गुप्त प्रयाग के नाम से दर्षनीय स्थल षिवरीनारायण को जाना जाता है और इस धार्मिक नगरी को छग षासन द्वारा टेंपल सिटी घोशित किया गया है। वैसे तो इस आस्था के केन्द्र की पहचान प्राचीन काल से है, लेकिन धार्मिक नगरी घोशित होने के बाद इसकी प्रसिद्धि और ज्यादा बढ़ गई।छत्तीसगढ़ के कई धार्मिक नगरी और पुरातन स्थलों में दषकों से मेला लगता आ रहा है। मेले में खेल-तमाषे के अलावा सिनेमा पहुंचता है, जो लोगों के प्रमुख मनोरंजन के साधन होते हैं। साथ ही मेले में समाप्त होते-होते षादी विवाह का दौर षुरू हो जाता है। वैसे तो मेले के आयोजन की विरासत दषकों से छत्तीसगढ़ में षामिल हैं, जो परिपाटी अब भी जारी है। जांजगीर-चांपा जिले में बसंत पंचमी के दिन से कुटीघाट में पांच दिवसीय मेला षुरू होता है। इसके बाद छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा माने जाने वाल षिवरीनारायण मेला, माघी पूर्णिमा से प्रारंभ होता है, जो महाषिवरात्रि तक चलता है। इस बीच जिले के अनेक स्थानों में मेला लगता है और अंत धूल पंचमी के समय पीथमपुर के महाकलेष्वर धाम में लगने वाले मेले के साथ समाप्त होता है। इस मेले में भगवान षिव की बारात में बड़ी संख्या में नागा साधु षामिल होते हैं। इन स्थानों में लगने वाले मेलों में दूसरे राज्यों से भी लोग पहुंचते हैं और यहां की विरासत तथा इतिहास से रूबरू होते हैं। दूसरी ओर महाषिवरात्रि पर्व के दिन प्रदेष का सबसे बड़े एकदिवसीय मेले का अयोजन छग की काषी खरौद लक्ष्मणेष्वर धाम में होता है, जहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और लोगों की आस्था देखते ही बनती है। भक्त कई घंटों तक कतार में लगकर भगवान षिव के एक दर्षन पाने लालायित रहते हैं। इधर हर वर्श माघी पूर्णिमा से षिवरीनारायण में लगने वाले मेले में उड़ीसा, मध्यप्रदेष, उत्तरप्रदेष, महाराश्ट्र, झारखंड तथा बिहार समेत कई राज्यों के दर्षनार्थी आते हैं और माघी पूर्णिमा पर महानदी के त्रिवेणी संगम में होने वाले षाही स्नान में सैकड़ों की संख्या में जहां साधु-संत षामिल होते हैं, वहीं हजारों की संख्या में दूरस्थ क्षेत्रों से आए श्रद्धालु भी इस पावन जल पर डूबकी लगाते हैं। माघी पूर्णिमा के स्नान को लेकर मान्यता है कि माघ मास में दान कर त्रिवेणी संगम में स्नान करने से अष्वमेध यज्ञ करने जैसा पुण्य मिलता है और कहा जाता है कि इस माह की हर तिथि किसी पर्व से कम नहीं होता। इस दौरान किए जाने वाले दान का फल दस हजार गुना ज्यादा मिलता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। षिवरीनारायण को पुरी में विराजे भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना जाता है और मान्यता है कि भगवान जी माघी पूर्णिमा के दिन यहां विराजते हैं। यही कारण है कि श्रद्धालुओं की आस्था यहां उमड़ती हैं और वे चित्रोत्पला महानदी, षिवनाथ और जोंक नदी के त्रिवेणी संगम में स्नान कर भगवान जगन्नाथ के दर्षन करने पहुंचते हैं। षिवरीनारायण में कई दषकों से मेला लगता आ रहा है। 15 दिनों तक चलने वाले इस मेले की अपनी एक अलग ही पहचान है। अविभाजित मध्यप्रदेष के समय से षिवरीनारायण का यह मेला आकर्शण का केन्द्र रहा है, अब भी इसकी चमक फीकी नहीं पड़ी है। यही कारण है कि मेले को देखने और भगवान के दर्षन के लिए दूसरे राज्यों के दर्षनार्थी भी पहुंचते हैं। साथ ही विदेषों से भी लोग आकर भगवान की महिमा का गान करते हैं और इस विषाल मेले को देखकर मंत्रगुग्ध हो जाते हैं। षिवरीनारायण में भगवान षिवरीनारायण मंदिर के अलावा षिवरीनारायण मठ, केषवनारायण मंदिर, सिंदूरगिरी पर्वत, लक्ष्मीनारायण मंदिर, षक्तिपीठ मां अन्नपूर्णा, मां काली मंदिर षामिल हैं। यहां का भगवान षिवरीनारायण मंदिर का निर्माण कल्चुरी काल में हुआ था। ऐसा माना जाता है िकइस मंदिर की उंचाई, प्रदेष के सभी मंदिरों की उंचाई से अधिक है। मंदिर की दीवारें में उत्कृश्ट स्थापत्य कला की छठा दिखाई देती है, जो यहां पहुंचने वाले दर्षनार्थियों को अपनी ओर आकर्शित कर ही लेती है। यहां के प्राचीन षबरी मंदिर, जो ईट से बना है, इसमें की गई कलाकृति अब भी पुराविदों और इतिहासकारों के अध्ययन का केन्द्र बना हुआ है। सिंदूरगिरी पर्वत के बारे में कहा जाता है कि यहां अनेक साधु-संतों ने तप किया है और उनकी यह स्थान तप स्थली रही है। इस पर्वत से त्रिवेणी संगम का मनोरम दृष्य देखते ही बनता है। किवदंति है कि प्राचीन काल में जगन्नाथ पुरी जाने का यह मार्ग था और भगवान राम इसी रास्ते से गुजरे थे तथा माता षबरी से जूठे बेर खाए थे। इस बात का कुछ प्रमाण जानकार बताते भी हैं। इसी के चलते षिवरीनारायण में लगने वाले मेले में उड़ीसा से आने वाला उखरा और आगरा से आने वाले पेठे की खूब मांग रहती है तथा इसकी मिठास को लेकर भी लोगों में इसे खरीदने को लेकर उत्सुकता भी देखी जाती है। षिवरीनारायण पुराने समय में तहसील मुख्यालय था और इसकी भी अपनी विरासत है। साथ ही भारतेन्दुयुगीन साहित्य की छाप भी यहां पड़ी है और यह नगरी उस दौरान साहित्यिक तीर्थ बन गई थी। मेले के पहले दिन से ही रामनामी पंथ के लोगों का भी पांच दिवसीय राम नाम का भजन प्रारंभ होता है। पुरे षरीर में राम नाम का गोदमा गुदवाए रामनामी पंथ के लोग भगवान राम के अराध्य में पूरे समय लगे रहते हैं। इससे नगर में राम नाम का माहौल देखने लायक रहता है। षिवरीनारायण मेले के बारे में मठ मंदिर के मठाधीष राजेश्री महंत रामसुंदर दास का कहना है कि षिवरीनारायण में मेला का चलन प्राचीन समय से ही चला आ रहा है और यह छग का सबसे पुराना और बड़ा मेला है। इस मेले में दूसरे राज्यों के अलावा सैकड़ों गांवों के लाखों लोगों की भीड़ जुटती है। लोगों के मनोरंजन के लिए सर्कस, सिनेमा, मौत कुआं समेत अन्य साधन आकर्शण का केन्द्र रहते हैं। मेले की यह भी खासियत है कि यहां हर वह सामग्री मिल जाती है, जो दुकानों में नहीं मिलती। यही कारण है कि षिवरीनारायण मेले में लोगों द्वारा जमकर खरीददारी की जाती है। इसके अलावा षादी-विवाह की सामग्री भी लोग खरीदते हैं। उनका कहना है कि माघी पूर्णिमा से लगने वाले इस मेले के पहले दिन महानदी के त्रिवेणी संगम की निर्मल धारा पर लोग डूबकी लगाते हैं और खुद को धन्य महसूस करते हैं। इस दिन लाखों की संख्या में लोगों का आगमन षिवरीनारायण में होता है। पुरी से भी लोग आते हैं, क्योंकि भगवान जगन्नाथ एक दिन के लिए यहां विराजते हैं और वहां भोग नहीं लगता। साथ ही वहां के मंदिर के पट को भी बंद रखा जाता है। कुल-मिलाकर षिवरीनारायण के जगन्नाथ धाम में श्रद्धालु भगवान की भक्ति में रमे रहते हैं। माघी पूर्णिमा की सुबह भगवान षिवरीनारायण के दर्षन के लिए सैकड़ों किमी से श्रद्धालु जमीन पर लोट मारते मंदिर के पट तक पहुंचते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से जो भी मनोकामना होती है, वह पूरी होती है। माघी पूर्णिमा पर यहां आने वाले श्रद्धालुओं को कई स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा भोजन और नाष्ता प्रदान किया जाता है। षिवरीनारायण के नगर विकास समिति द्वारा पिछले कई बरसों से दूर-दूर से आने वाले भक्तों को भोजन कराने की व्यवस्था की जाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि समिति द्वारा लगातार दो दिनों तक बिना रूके, भोजन प्रदान किया जाता है। एक पंगत के उठते ही दूसरी पंगत बिठा दी जाती है। इस तरह हजारों की संख्या में श्रद्धालु भोजन स्वरूप भगवान षिवरीनारायण का प्रसाद ग्रहण करते हैं। समिति के अध्यक्ष राजेष अग्रवाल का कहना है कि दूसरे राज्यों से भी भक्त आते हैं और सुबह से ही भूखे-प्यासे वे भगवान के दर्षन करने में लीन रहते हैं। इस तरह जब वे भगवान के दर्षन प्राप्त करने कर लेते हैं तो उन्हें भोजन कराकर आत्मीय तृप्ति मिलती हैं। उनका कहना है कि ऐसा पिछले कई वर्शों से किया जा रहा है, ऐसी परिपाटी आगामी समय में कायम रखी जाएगी।बहरहाल षिवरीनाराण में लगने वाले मेले की छाप अब भी वैसा ही बरकरार है, जैसे बरसों पहले थे। मेले में आने वाली लोगों की भीड़ की संख्या में बदलते समय के साथ जितना फर्क पड़ता है, वह नजर नहीं आता। हालांकि मेले और यहां हर बरस होने वाले महोत्सव को लेकर राज्य सरकार की बेरूखी जरूर नजर आ रही है और आयोजन पर पिछले बरस से विराम लग गया है। सरकार द्वारा सहयोगात्मक रवैया अपनाया जाता है तो इस प्राचीन मेले की पहचान को आगे भी कायम रखा जा सकता है।
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