कविता, कुसुम या कामिनी हो ?
आदर्शो‘ का ठीकरा
सिर्फ़ मेरे सिर फोडती ,
यह भीड
अपने सिर पर आसमान उट्ःआय़ॆ मेरी ओर बढती आ रही है।
सिर्फ़ तेरी तन्मयता से उठते हुए स्वर
उस आसमान को चिढाते हैं ।
जीवन से प्रणय रत रोज मरती हुयी हजारों कलियों के प्रस्फुटन में
पाता हूं
एक अनोखा सौरभ
जो तुम्ही से प्रेसित
देता है
पूर्णकाम होने का अहसास ।
ऊर्वर धरा की आतुर गंध से
आती है
रचनाधर्मी एक उत्तेजक पुकार ।
हार जाता है मेरे अंन्दर का गगनोन्मुख पुंसत्व
सम्मोहित नीचे देखता हूं मैं
आसमान को चिढाती हुयी
फिर वही रहस्यमयी मुस्कान ।
कौन हो तुम
भीड से बेपरवा
कविता, कुसुम या कामिनी हो ?
bahut khub
ReplyDeletebahut bahut dhanyawad ,Shamaaji.
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