उत्तराखंड में ये कैसी पत्रकारिता कर रहे है आज कुछ पत्रकार?
सूचना के अधिकार के तह्त सरकार को ब्लैकमेल कर रहें है कुछ तथाकथित पत्रकार
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बीस साल से भी ज्यादा का समय हो गया हैं,मुझे पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करते हुए। स्व.प्रभाष जी,रामविलास शर्मा,त्रिलोचन जी और देवकीनंद पांडे,सुरेंद्र प्रताप जी,आलोक मेहता,मृणाल जी जैसे कई दिग्गजों के साथ काम करने का हमें मौका मिला। अपने शुरुआती दिनों से लेकर अभी तक हमने दूरदर्शन से जुड़े रहते हुए पत्रकारिता के कई रूपों को देखा। दूरदर्शन का इतिहास अपने आप श्रेयकर रहा हैं और है भी। आज तमाम चैनलों के चलते हुए भी दूरदर्शन की खुद की गरीमा है। खुद का एक कंटेंट है,जिसपे वह हमेशा से कायम रहा है। हमने इसी मंच से पत्रकारिता के शुरूआत की और आज भी अपने मक्सद में निरंतर हम प्रयासरत है। लेकिन जीवन के इस पड़ाव तक हमने पत्रकारिता के किसी भी मुकाम को कलंकित नहीं होने दिया,ना ही हम तथाकथित शब्दों के कभी अभीप्राय बने। हमने पत्रकारिता के मिज़ाज को एक नयी परिभाष के माध्यम से जीवंत ही नहीं किया अपितु उसे श्रेष्ठ भी बनाया।
मैं पहाड़ से हूं और पहाड़ बहुत ऊंचे होते है,उनकी ऊचांई हर कोई नहीं नाप सकता है। इसके लिए बहुत बड़ा ज़िगरा चाहिए होता है। जो हर किसी के पास नहीं होता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मैंने पहाड़ को बहुत करीब से देखा हैं,और आज देख रहा हूं। यहां के जीवन परिवेश को जितना मैंने जिया हैं,मस्ती में जिया हैं,मैंने पहाड़ों को हमेशा खुद में समाहित किया है। इसलिए भी मैं पहाड़ को बहुत करीब से देखने की हिमाकत कर पाता हूं। निश्चित तौर पर पहाड़ों ने हर क्षेत्र में विश्व को कुछ न कुछ विशेष दिया है। फिर चाहे वह किसी भी तरह की चुनौती हो या फिर युद्ध का मैदान पहाड़ अपनी भूमिका हमेशा तय करता रहा है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में जो चुनौतियां पहाड़ ने चुनी है। वह आज किसी से छुपी नहीं है। लेकिन आज कुछ तथाकथित पत्रकारिता के दलाल इस पेशे के साथ जिस तरह का मजाक कर रहे है। उससे निश्चित तौर पर पहाड़ के जन-मानस को ठेस पहुंच रही है। वह भी ऐसे पत्रकार जो खुद हमेशा पाक-साफ होने के दावे करते है। लेकिन इनकी वास्तविकता जब सामने आती हैं,तो कई बार सही अर्थों में पहाड़ भी शर्म के मारे झुक जाते है। इसका एक पुख्ता तथ्य का ज़िगर में निश्चित तौर पर यहां करना चाहूंगा। पिछले दिनों मैं देहरादून में मौजूद था। आपदा को लेकर उत्तराखंड सरकार की भूमिका को जानने के लिए,यकीनन सरकार ने अपने स्तर पर आपदा पीड़ितों के लिए जो भूमिका तय की थी। उसे पूरे विश्व ने देखा और इस के लिए सरकार की सराहना भी की और की भी जानी चाहिए। क्योंकि विकास के मार्ग जब कोई रोड़ा आता हैं,और उसे आप सावधानी के साथ हटाकर आगे बढ़ जाते हैं तो इसे आपके विकास की सफलता कहा जा सकता है। जो मुझे लगता हैं कि डॉ.निशंक के करके दिखाया है।
यकीनी तौर पर आपदा की आगोश में फंसे उत्तराखंड को एक ऐसी सोच की आवश्यकता थी। जो यहां के विकास में बाधा न बने,जिसके लिए कई लोगों ने प्रयास भी किए और किए भी जा रहे है। लेकिन ऐसे मौके पर भी कुछ पत्रकार बंधुओं ने सरकार से सूचना के अधिकार के तह्त कुछ ऐसी जानकारियां जुटाने का भरसक प्रयास किया कि जो शायद सरकार को कहीं न कहीं अपने काम से भटका रहा था। उससे जुड़े अधिकारी निरतंर उन सूचनाओं को जुटाने में लगे थे,जो उन्हें प्रश्नकर्ता को देने थे। यकीनन यह अधिकार हमें हैं और इसका गठन भी इसी लिए किया गया हैं कि ताकि हम सच जान सकें। लेकिन ऐसे मौके पर यह कहां तक उचित हैं कि आप आपदा के भंवर में फंसे हैं,और आप ऐसे में यह जानना चाहते हैं कि सरकार ने कितने पैसे अभी तक बांटे और कब बांटे। क्या इसके लिए फिर से कोई दूसरी समय सीमा तय नहीं की जा सकती थी। लेकिन यहां इन पत्रकारों को हर हाल में जल्द से जल्द यह जानकारी चाहिए थी। जनता की सेवा भाड़ में जाएं,इससे इन्हें कोई लेना देना नहीं था। यहां काबिले तारीफ बात तो यह हैं कि जो सवाल इन कुछ तथाकथित पत्रकारों के माध्यम से पूछे गए उसमें केवल चार ही लोग ऐसे थे। जिन्होंने आपदा के बारे में सूचनाएं मांगी थी। बाकि की 96% ऐसे लोग हैं जो तमाम ऐसे मुद्दों को लेकर सवाल जानना चाहते हैं। जिनसे इन्हें दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। ना ही इन सूचनाओं से किसी के लिए कोई विशेष रिपोर्ट तैयार होनी वाली थी। कुछ सवाल का उल्लेख करना चाहूंगा किः- उत्तराखंड से निकलने वाली एक पत्रिका को दस हजार का विज्ञापन दिया गया तो हमें क्यों नहीं दिया गया,हमें पांच हजार ही क्यों मिले? इसी तरह एक पत्रकार ने सवाल किया हैं कि मुझे जल्द ही एक अख़बार का प्रकाशन शुरू करना हैं। तो मुझे इससे सरकार से कितना सहयोग मिलेगा? कुछ इस तरह के सवाल हैं,जो सही अर्थों में सूचना के अधिकार का मजाक उड़ाते हुए नज़र आते है। अब इन सवालों का सूचना अधिकारी क्या जबाब दें। इस बारे में जब हमने एक सूचना अधिकार से बातचीत की तो,उनकी हंसते हुए कहना था कि 'जनता से जुड़ी सूचनाएं,जनता के लिए किए जा रहे कार्यों की जानकारी आज किसी को नहीं चाहिए। यहां तो ऐसे लोग हैं,जिन्हें यह जानना हैं की फलाने को सरकार से क्या मिला,तो हमें क्या मिलेगा और कैसे मिलेगा। ये तो मजाक ही हैं,जो यकीनन सरकार का समय भी बरबाद कर रहा हैं और जन-मानस का भी,सूचना अधिकारी आगे बताते हैं कि कई लोग इस तरह से सवाल पूछते हैं कि या तो विपक्ष का नेता उनसे यह सवाल लिखवाता हैं,या फिर यह लोग कुछ नेताओं के साथ मिलकर सरकारी व्यक्ति को उलझाए रखने के लिए इस तरह के सवाल करते है। जिसके चलते इसके लिए एक व्यक्ति विशेष का वह समय नष्ट हो जाता हैं,जिस उसे किसी जरूरत मंद व्यक्ति के काम में लगना था।
इस विषय पर जब हमने विस्तार से जानने की कोशिश की तो पता चला जिन पत्रकार बंधुओं ने यह सूचनाएं मांगी थी। वह तो पत्रकार थे ही नहीं। बल्कि यह लोग तो पत्रकारिता के नाम पर अपनी-अपनी दुकाने चला रहे है। और सूचना के अधिकार मांगने के नाम पर सरकार को ब्लैकमेल कर रहे है। तब हमने तय किया की अब इस मामले की तय तक जाना बहुत जरुरी हो गया है। इसके बाद हमने भी सूचना के अधिकार के तह्त सरकार से उन तमाम अख़बारों और पत्रिकाओं की सूचि मांगी जो उत्तराखंड में विकास की दौड़ में खुद को शामिल मानते है। इसके बात जब हमें इसका जबाब मिला तो,सच कहें तो हमें ही शर्म आयी और मन भर आया कि आखिर यह कुछ तथाकथित पत्रकार हमारे पेशे को किस तरह बदनाम कर रहे है। साथ ही यह राज्य सरकार का तो समय ख़राब कर ही रहे है। बल्कि यह तो वह लोग भी हैं,जो आये दिन सरकार के खिलाफ अफवाओं का बाज़ार गर्म करते है। कभी यह मुख्यमंत्री को दिल्ली तलब करा देते हैं तो कभी खंडूड़ी जी की ताजपोशी की तैयारी करवा देते है। इन्हें राज्य सरकार की विकास यात्रा से कोई लेना देना नहीं है। इससे साफ जाहिर हो जाता हैं की यह आख़िर किसके लिए और क्यों काम करते है।
उत्तराखंड हो देश के दूसरा कोई हिस्सा आज निश्चित तौर पर पत्रकारिता के नाम पर कुछ लोगों ने उगायी शुरू कर दी है। यह लोग किसी न किसी तरह सरकारी तंत्र का वह हिस्सा हैं जो भ्रष्टाचार की नींव पर फल-फूल रहा है। हमने पाया की आज के समय सिर्फ उत्तराखंड में और ख़ास तौर पर राजधानी देरहादून में कई ऐसे पत्रकार मौजूद हैं जो खुद को सरकार के ईर्द-गिर्द रखते हुए सरकार को ऐसे मामलों में उलझाएं हुए है। जिनसे सरकार का कोई सरोकार ही नहीं है। इससे नुकसान हर किमत पर आम आदमी का हो रहा है। विकास का हो रहा है। नुकसान की बात हमने की तो,सूचना के अधिकार के तह्त मांगी जानी वाली तमाम सूचना लेने वाले व्यक्तियों में अधिकांश ऐसे लोग या पत्रकार हैं। जो किसी न किसी रूप में विपक्षी पार्टियों के बड़े नामों से जुड़े हैं या एक ख़ास किस्म के दलाल है। जो पूरे दिन सरकारी दफ्तरों में बैठ कर सरकारी बाबूओं की चाय पिते हैं,उनके साथ ठहाके लगाते हैं और इन ठहाकों के साथ सरकार के उन तमाम अधिकारियों की त्रुटियों को खोजने में लगे रहते हैं,जिससे इन्हें बहुत बड़ा फ्यादा होने वाला हो। नब्ज़ पकड़ना तो इन्हें आता ही है,इसी तरह से यह सरकार के उस विकास की धारा को तो रोकते ही है,बल्कि खुद भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते है। उत्तराखंड में इस तरह से यह धनदा खूब फल-फूल रहा है। मैं किसी व्यक्ति विशेष पर कोई आरोप नहीं लगा रहा हूं,लेकिन यह सच हैं कि कुछ तथाकथिक पत्रकार आजकल राजधानी में खूब फल-फूल रहे है। जो सरकार को कई मामलो में उलझा कर खुद की जेब गर्म कर रहे है। कभी वह सरकार को गंगा के नाम पर घेरते हैं तो कभी विपक्ष के गढ़ में शामिल होकर,जिससे आये दिन सरकार के काम में बाधा तो पड़ती हैं,बल्कि प्रदेश की जनता को भी इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ता है। क्योंकि जिस वक्त काम होना है,वह वक्त तो इन लोगों के झूठे मुद्दों को सुलझाने में गुजर जाता है। फिर यही लोग हो-हल्ला मचाते हैं,सरकार काम नहीं कर रही हैं,सरकार बेकार हैं। लेकिन सवाल यह उठता हैं कि सरकार को काम कौन करने दे रहा हैं,और अगर सरकार के काम में देरी हो रही हैं,तो इसका जिम्मेदार कौन है। इस बात की जांच और उन चेहरों के नाम सरकार को निश्चित तौर पर उज़ागर करने चाहिए जो सरकार के कामों में बाधा पहुंचा रहे है।
दूसरी तरफ कुछ पत्रकार आज़ मैं मांफी चाहूंगा इन्हें पत्रकार नहीं कहना चाहिए। दरअसल यह तो दलाल हैं,जिन्हें अब अपनी जान को ख़तरा है क्योंकि यह दलाली करते-करते अपने लिए अपार धन-सम्पती जुटा चुके है। जिस पर इनसे भी बड़े दलालों की नज़र हैं,और अब इन्हें इस दलाली की कमाई को इनसे बचाने के लिए खुद को बचाने के लिए सरकारी सुरक्षा की भी आवश्यकता आना पड़ी है। जिसके लिए यह राज्य सरकार से एक के बाद एक सिफारिश कर रहे है या करवा रहे है। क्योंकि अब इनकी जान को ख़तरा हैं,फिर चाहे यह नोएडा-दिल्ली कहीं भी रहे इन्हें उत्तराखंड सरकार से खुद की दौलत और खुद की जान की ख़ातिर सुरक्षा चाहिए। यहां सवाल यह उठता हैं कि आखिर इन्हें सुरक्षा की आवश्यता क्यों पड़ी। कल तक एक छोटे से पुराने कमरे में मोमबती के उजाले में दो पंक्तियां लिखने वाले लेखक-पत्रकार इतने धनी कैसे हो गए। कुछ नामी लेखकों-पत्रकारों से लिखने का निवेदन कर छोटी-छोटी पत्रिकाओं और छोटे-छोटे दो पेज के अखबार प्रकाशित करने वालो के पास इतनी अपार सम्पती आखिर कहां से आयी। जो आज उसकी सुरक्षा के लिए इन्हें सरकार से सुरक्षा चाहिए। वह भी उस सरकार से जिसकी कल दिन तक यह सब मिलकर टांग खीच रहे थे। क्या इन सब बातों की जांच नहीं की जानी चाहिए। क्या यह जानने का अधिकार आम-आदमी को नहीं हैं कि कल तक फटे हाल घुमने वाले ये छोटे से पत्रकार आज लखों के मालिक कैसे बन गए। जिनके पास कल तक रहने के घर नहीं था आज वह कोठियों के मालिक कैसे हो गए। क्या इस बात की जांच नहीं होनी चाहिए। इस बारे में जब हमने राज्य सरकार से जानना चाह तो,सरकार ने साफ किया कि राज्य सरकार जल्द ही ऐसे लोगों को चिन्हित कर रही हैं। जो पत्रकारिता का नाम बदनाम कर रहे है,साथ ही सरकार का समय ख़राब करने में लगे है। इस के लिए राज्य सरकार ने एक टीम का गठन भी कर दिया है। जो जल्द ही सरकार को एक रिपोर्ट तैयार कर देगी कि उत्तराखंड में कितनी ऐसी पत्र-पत्रिकाए और पत्रकार हैं,जो खुद के मूल्यों पर काम कर रहे है। साथ ही यह भी देखा जा रहा हैं कि वह कौन लोग है,जो पत्रकारिता के नाम पर भ्रम फैला रहे हैं,और सरकार की भूमिका पर सवाल उठा रहे है। यह टीम इस बात की रिपोर्ट भी जल्द सरकार को देगी की कितनी पत्र-पत्रिकाओं और पत्रकारों को राज्य सरकार या अन्य संगठनों से मान्यता प्राप्त हैं और इनके कमायी के स्रोत क्या है। इनका प्रकाशन और प्रचार-संचालन किस तरह से किया जाता हैं या सरकारी तौर पर किस तरह से मदद पहुंचायी जाती है। इसके साथ यह भी जानकारी प्राप्त की जाएगी की आख़िर इन लोगों को सुरक्षा की जरुरत क्यों आना पड़ी। इसके बाद राज्य सरकार एक कमेटी का गठन करेगी जो फर्जी तरीके से काम रहे इन तथाकथिक पत्रकारों और संगठनों पर लगाम कसने का काम करेगी।
विद्रोही
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