बढ़ते तापमान और दिनों-दिन घटते जल स्तर से भले ही सरकार चिंतित न हो, मगर मुझ जैसे गरीब को जरूर चिंता में डाल दिया है। सरकार के बड़े-बड़े नुमाइंदें के लिए मिनरल वाटर है और कमरों में ठंडकता के लिए एयरकंडीषनर की सुविधा। ऐसे में उन जैसों के माथे पर पसीने की बूंद की क्या जरूरत है, इसके लिए गरीबों को कोटा जो मिला हुआ है। पसीने बहाने की जवाबदारी गरीबों के पास है, क्योंकि यही तो हैं, जिनके पास ऐसे संसाधन नहीं होते या फिर उन जैसे नुमाइंदों को फिक्र नहीं होती कि खुद की तरह तो नहीं, पर इतना जरूर सुविधा दे दे, जिससे गरीबों का खून ना सूखे। बड़े लोगों के लिए तमाम तरह की सुविधा किसी से छुपी नहीं है, लेकिन हम गरीबों को मिलने वाली सुविधा छिपाई तो नहीं जाती, वरन् हड़प जरूर ली जाती है। इन्हीं बातों को लेकर कुछ लिखने के लिए मैं बैठा था, इसी दौरान मुझे आंख लग गई और मैं गहरी सोच में डूब गया। मैं अपने गांव के मोहल्लों में तफरीह के लिए निकला, वहां मैंने देखा कि गांव के का एक व्यक्ति पसीने से तर-बतर है। हैण्डपंप से वह पानी लेने के लिए बहुत समय से नल के मुंह पर बाल्टी लगा रखा है और वह हैण्डपंप का, हैण्डल मार-मारकर थक गया है। उसके पहने हुए कपड़े पसीने से भीगे पड़े हैं और दूसरी ओर हैण्डल के पास रखी, दूसरी बाल्टी पसीने से भर रही है। वह हैण्डल पर हैण्डल, दिए जा रहा है, मगर हैण्डपंप है कि पानी ही नहीं उगल रहा है। मैंने पास जाकर उस व्यक्ति से पूछा, क्यों भाई, हैण्डपंप में तो पानी नहीं निकल रहा है, उल्टे तुम्हारे पसीने से दूसरी बाल्टी भर गई है। इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि क्या करें भाई, गांव में गर्मी के कारण हैण्डपंप के हलक सूखे पड़े हैं। इसलिए कोषिष कर रहे हैं कि कैसे भी हैण्डपंप से पानी निकल आए, क्योंकि प्यास से कोई बड़ी चीज थोड़ी ना है। इसके बाद मैंने उससे पूछा कि हैण्डपंप से पानी के बजाय, बाल्टी पसीने से भर गई है, इसकी तुम्हें चिंता नहीं है ? इस पर उस व्यक्ति ने जवाब देते हुए जो कहा, उससे मेरे कान खड़े हो गए, हम तो गरीब हैं, भैया और गरीबों का सुनने वाला कौन है ? भला गरीबों का हमदर्द कोई होता है, क्या। उसने कहा कि यह कोई इसी साल की समस्या नहीं है, पिछले कई दषकों से हम तो ऐसे ही जी रहे हैं और हर बरस ऐसे ही हम जैसों का पसीना बहता है। गांव-गांव में कभी-कभार बड़े लोग आकर गर्मी मंे पानी की कोई कमी नहीं होने की तसल्ली दे जाते हैं, लेकिन हालात वही है, जैसे बरसों पहले थे। हमने भी इसे अपने कर्म का लेखा मान लिया है औेर जैसी बन पड़ रही है, वैसी जिंदगी जी रहे हैं। उसने कहा कि हम तो गंवार और गरीब हैं, भला हम जैसे लोगों को पानी की इतनी ज्यादा जरूरत, किस बात की है। जरूरत तो पानी पीने वाले उद्योगों को है, सरकार भी उन पर मेहरबान है। नदी-नालों में कल-कल कर बहता पानी पर, हम जैसे गरीबों का कोई हक हो सकता है ? हम तो इसी बात से मन को मसोसकर रख लेते हैं कि बड़े लोगों का जीना, जीना है और पानी पीने का हक भी उन्हें है, हम जैसे गरीबों के लिए हवा जो है, जिस पर ऐसे कारिंदों का कुछ नहीं चलता। हालांकि इस बात को लेकर भी हव चिंतित हैं कि जो हवा हमें मिली हुई है, उस पर भी अब उद्योगों के प्रदूषण का जहर घुल रहा है, उस पर भी अब उद्योगों के प्रदूषण का जहर घुल रहा है। इस तरह मैं तो सोच-सोचकर घबरा जा रहा हूं कि क्या हम जैसे गरीबों के बाल्टी-बाल्टी भर पसीने इसी तरह ऐसे ही बहते रहेंगे ? बाद में अचानक मैं जागा तो देखा कि मैं भी पसीने से तर-बतर हूं, क्योंकि बिजली जो चली गई थी। फिर मैं यही सोचकर मुस्कुराता रह गया कि बरसों से गरीबों के पसीने बहाने की अमर कहानी ऐसी ही चल रही है और यह तो गरीबों को होने वाली तकलीफों का एक छोटा सा हिस्सा ही है।
shi khaa jnab gribon ko af pine ka paani nikaalne ke liyen itna hi psina bhaana pdhta he aek achchi jivnt story likhi he mubark ho . akhtar khan akela kota rajsthan
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