24.11.10

नर्सरी का छात्र है “प्रधान”!


प्रधानी को आज कल की नेतागिरी व राजनीती के छेत्र में पहला कदम यानि नर्सरी का छात्र के रूप में देखा जा सकता है जैसे नर्सरी का बच्चा अपने गुरु जनों से जीवन की अनेको विषयों में पारंगत होने की नीव इसी क्लास से मजबूत करता है ठीक उसी प्रकार किस तरह की राजनीति करनी है जनता की किस प्रकार से सेवा करनी है कौन से पैसे का उपयोग कैसे करना है या फिर अपने से जुड़े अधिकारीयों को कैसे अपने फेबर में रखना है ताकि किसी के कम्प्लेन पर भी कोई जाँच न हो,शायद लोगों को इस प्रकार के ए,बी,सी,डी की जानकारियां इसी क्लास से मिलती है! एक समय था जब ऐसे चुनाव को लोग जानते भी नहीं थे लेकिन आज चल रही अनेको योजनाओं के चलते ये पद लोगों के आकर्षण का केंद्र बन चूका है आज यह नर्सरी रूपी पद का चुनाव किसी भी बड़े राजनितिक पद के चुनाव से कम टक्कर का नहीं होता, आज इस चुनाव में अधिकाधिक मात्रा में प्रत्याशी मैदान में नजर आते है प्रत्याशियों के द्वारा चुनाव लड़ने या जितने के लिए लाखों रुपये खर्च किये जाते है और फिर अंत में चुनाव के बाद क्या होना है योजनाओं का लाभ गांव वालों को कितना देना या मिलना है ये उस छात्र (प्रधान) के द्वारा प्राप्त की जाने वाली शिझा व उसके गुरुओं के ऊपर ही निर्भर करता है!
आज देश में बढ़ रही अनेकों योजनाओं से प्रधान पद काफी लोक प्रिय होता नजर आता है,खैर ये योजनाये देश व जनता के हित के लिए ही बनायीं जाती है और शायद इन योजनाओं का कुछ प्रतिशत सही तरीके से गाँव में खर्च हो जाय तो किसी भी गांव का पूर्ण विकास तो नहीं लेकिन जरुरत भर विकास तो संभव ही लगता है! लेकिन आज अगर कहीं पैसे खर्च भी किये जाते है तो शायद सिर्फ वोट के बदले यानि इस हाथ ले उस दे दे या इस हाथ दे और उस हाथ ले ले वाला हिसाब किताब! और इसी चक्कर में कहीं न कहीं जरूरतमंद की जरूरते जस की तस पड़ी रह जाती है और वो पांच पे पांच साल का तथा एक प्रधान के क्रिया कलाप से खिन्न हो उम्मीदों को छोड़ दुसरे प्रधान के आने का इंतजार करते हुए एक दिन परलोक को प्रस्थान कर जाता है,आज बहुत से गांव में बहुत से ब्यक्ति ऐसे है जिन्हें हकीकत में एक छत की जरुरत है पर उन्हें शायद इस लिए छत बनाए हेतु पैसा नहीं मिलता की उसने या तो प्रधान जी को वोट नहीं दिया हो या अगर दिया भी तो उनके चमचों से उनकी न बनती हो क्योंकि कार्य तो वही होगा जो प्रधान जी के चमचे चाहेंगे जिसे देख कर ऐसा प्रतीत होता है की अगर प्रधान साहब से कोई कार्य करवाना है तो उनसे कहने से बेहतर है उनके चमचों से गुहार लगायी जाय……………………………..,अभी इस मामले में बड़े पदों जैसे विधायिकी एवं सांसद स्तर पर तो हालत फिर भी ठीक नजर आता है यहाँ पर फिर भी जो कार्य होते है उनका रूप सार्वजनिक ही होता है, लेकिन गांव में तो स्थिति ये है की वो गरीब जनता जो पिने के पानी के लिए क्या करती है कहाँ से पानी पीती है पानी पीती भी है या नहीं इससे कई गावं के प्रधान जी लोगों को कोई मतलब नहीं होता क्योंकि या तो उनसे इन जनता की कोई पर्सनल दुश्मनी होगी या फिर उनके प्रतिनिधयों की लेकिन उन अमीरों के बस्ती में सरकारी नलका जरुर गड़ेगा जहाँ लोगों के घरों में मोटर होने के साथ साथ दो दो नलके जरुर होते है शायद ऐसा इस लिए की ये लोग प्रधान जी का गुडगान करते होंगे……………………..ख़राब रास्ता होने के कारण स्कुल जाने के पहले बच्चे गिर कर अपना ड्रेस ख़राब करते है या फिर कीचड़ में जूतों को नहलाते है लोग उस गंदे रस्ते से कैसे गुजरते है आज कई गांव के प्रधान जी लोगों को इससे कोई मतलब नहीं बस उनको वोट देने वाले का बच्चा तो सुरछित चलता है ना,इतना ही नहीं किस कलर का राशन कार्ड किस ब्यक्ति का बनाना है,किसको जरूरतमंद मान कर बृद्ध की श्रेणी में रख कर बृद्धा पेंशन जारी करना है ये भी शायद वोट पर ही निर्भर करता है की आपने वोट किसको दिया है, और तो और आज आलम ये है की अगर जीते हुए प्रत्याशी या उनके चमचो को पूर्ण भरोषा है की उस चाची ने उन्हें वोट पक्का दिया है जिनके पतिदेव रोज सुबह शाम चाय पीने के लिए चौराहे पर जाते हैं और जिनके घर विदेश की कमाई भी आती है का विधवा पेंशन का अप्लिकेशन उन तमाम विधवाओं के अप्लिकेशन में सबसे ऊपर वरीयता के मार्क के साथ होगा जो हकीकत में एक एक रुपये के लिए मोहताज हैं जिनके घर चाय तो दूर बूढी उम्र में अपने पति के स्वर्ग सिधार जाने के कारण पैसे की कमी से जबरदस्त खांशी में पीने के लिए सीरप भी नशीब नहीं होता! आखिर ऐसा क्यों ? क्यों गांवों में मुह देखकर कार्य को अंजाम दिया जाता है ? वो पैसा जो सरकारों के द्वारा गांवो के विकास के लिए कम या अधिक बिना भेदभाव के जाता है गांव में पहुचते ही उस पैसे में भेद भाव होना क्यों सुरु हो जाता है ? क्या उस पैसे का हक़दार सिर्फ वही है जिसने प्रधान पद के ब्यक्ति को वोट दिया है ? और बाकियों को उस पैसे से क्यों बंचित रक्खा जाता है ? जब की कोई भी ब्यक्ति किसी भी कारण बस और अपनी मर्जी से वोट किसी को भी दे सकता है और फिर इसकी तो पूर्ण रूप से स्वतंत्रता भी है अपने देश में सबको तो फिर ऐसा क्यों ? आखिर ये पैसा किसी भी ब्यक्ति का अपना तो नहीं है जो भेदभाव कर खर्च किया जाय कोई भी ब्यक्ति अपने पैसे को जैसे खर्च करे ये उसके विवेक के ऊपर निर्भर करता है, और तो और सबसे बड़ा प्रश्न तो ये खड़ा होता है की जिस वोट के पाने या ना पाने का अंदाजा लगा कुछ लोग अपने पुरे कार्यकाल में भेद भाव रूपी कार्य को अंजाम देते रहते है आखिर उन्हें ये पता कैसे चलता है की उस खाली कोठरी में फला ब्यक्ति ने वोट किसको दिया है! अब ऐसे कार्यों को किस श्रेणी में रक्खा जाय ये बेहद कठिन कार्य है लेकिन इतना तो साफ और स्पस्ट ही है की प्रधान नर्सरी का छात्र ही है और इस नर्सरी को किसी भी रूप में देखा जा सकता है ये नर्सरी की क्लास जनता का सच्चा सेवक बनने,विद्वान् राजनीतिग्य बनने,नेता बनने या फिर भ्रस्टाचारी बनने किसी भी विषय की पढाई के लिए हो सकती है!

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