पूरा पत्रकार जगत,कारपारेट जगत,पूरा राजनैतिक क्षितिज राडिया की दलाली में खुलासे से लाल-पीला हो रहा है।ऐसा लग रहा है,जैसे राडिया ने कोई नया कार्य किया हो।कभी भी राडिया के द्धारा किये कार्यों को जायज नहीं माना जा सकता,लेकिन इस इस प्रकार के दलाली के कार्य हमेशा किसी न किसी के द्धारा होते रहें हैं।स्वंय इस प्रकार के खुलासे इस समय हुये हैं कि प्रभु चावला ने मुकेश अंबानी के लिये दलाली की।यानि कि क्या ये दलाली या ‘लाबिंग’केवल पत्रकारों या नेताओं द्धारा की जाती तो क्या इन खुलासों पर इतना हंगामा होता।प्रभु चावला लम्बे समय से ऐसा करते रहे होंगें।कारपारेट जगत को नाजायज फायदा पहुंचाने के लिये जो लाबिंग की जाती है,आखिर उसकी फिलासफी क्या है।
हमारा पूरा सरकारी तंत्र वास्तव में एक क्लोज सिस्टम की तरह है,जहॉं सात तालों में रहकर डिसीजन लिये जातें हैं।गोपनीयता के नाम पर जी भरकर अपनों के हित साधे व संभाले जाते हैं।सिद्धांतगत डिसीजन मैकिंग निश्चित तथ्यों पर आधरित प्रक्रिया होती है।इसमें मॉरल वैल्यू का सम्मिश्रण इस लैविल पर किया जाता है कि डिसीजन अधिक से अधिक लोंगों को लाभप्रद हो सके।इसमें अपनी मर्जी की गुजांइस नहीं होती है।यदि इस प्रकार डिसीजन लिये जाते-तो कभी भी गोपनीयता की इस हद तक जरूरत न पडती कि डिसीजन को प्रभावित करने के लिये ‘लाबिंग’ जैसी दलाली प्रक्रिया की आवश्यकता पडती।अब जबकि निर्णय पूरी तरह मनमाने तरीके से लिये जांयेगें तो वे निश्चित रूप से किसी को बेजां फायदा पहुंचायेंगें ही।हमारा तंत्र तथ्यों को छिपाने की वकालत करता है,और मॉरल वैल्यू पर बात करना हमने बहुत पीछे छोड दिया है।ऐसी दशा सोच सकते हैं कि राडिया या बरखा दत्त की जरूरत तो पडेगी ही।तो राडिया से रार क्यों।
राडिया तो बधाई की पात्र इसलिये हैं कि उन्होंने स्त्री-जात के दुर्गुणों का प्रयोग नहीं किया।अपनी तीन सौ करोड की धन-दौलत इकटठी करने के लिये शायद शरीर की नैतिकता तो बरकरार रखी होगी ही।हालांकि आजकल इसके कोई मायने नहीं है।लेकिन आगे बढने के लिये शरीर का उपयोग तो खतरनाक है ही।
दूसरी बात जो राडिया कारनामें के दर्शन में है वो अनसुनी नहीं है।वामपंथी इसे अपना राग बताते हैं,जबकि वे इससे अपना सरोकार केवल सत्ता की भागीदारी के लिये ही करते हैं।पूंजी के उदारीकरण का प्रवाह केवल कुछ हाथों के कब्जे में ही क्यों रहे,पूंजी लैंगिक विभेद की सीमाओं के पार है।पूरा देश जब सर्विस सेक्टर की ग्रौथ पर फूला नहीं समा रहा हो तो दलाली से पर्दा कैसे कर सकते है,आखिर सर्विस सेक्टर को दलाली से ज्यादा क्या कहेंगें।किसी उधोगपति का समय किसी मंत्रालय के वैटिंग रूम में बिताना ज्यादा शर्मनाक है,अपेक्षाक्रत किसी दलाल को पैसे देकर फाइल पास कर ली जाय।और ये काम हमेशा से होता आया है।मंत्री जी का पी0ए0 या अधिकारी का स्टेनो इस काम को आसानी से कर सकते हैं,और हमेशा से करते रहें हैं। ये अलग बात है कि अब ये काम इस्टीटयूट के रूप में संचालित होने लगें हैं।इसे अब हम लाबिंग का नाम से बुला रहें हैं।इस प्रकार कभी पूंजी लाबिंग के सहारे मंत्रिपद का निर्धारण करेगी तो कभी कारपोरेट जगत को सब्सिडी दिलवायेगी।और इसकी एक हकीकत यह भी है कि उच्च शिखर पर ट्राजेक्शन किसी तथाकथित उंचे आदमी से ही सम्पन्न किये जायेंगे।कोई आम आदमी न तो ऐसे ट्राजेक्शन का माध्यम बनेगा और न हीं उससे लाभान्वित होगा।हम और आप कभी इलाज नहीं ढूंढते,बल्कि बंदर की तरह उछल कूद मचाकर शांत हो जाते हैं,ताकि भविष्य के लिये हम अपनी पेरोकारी दिखा सकें।नहीं तो इतिहास हमें भी दोषी करार देगा।इसलिये हम शराफत का ढोंग करते हैं।संसद में सवाल पूंछने के लिये रिश्वत का मामला हो या सांसदों की खरीद के लिये नोट उछालने का मामला,इस सबसे भी शर्मनाक कुछ और हो सकता है।सही बात यह है कि हमारी व्यवस्था में जो नासूर बन गया है,उससे समय-समय पर ये मवाद रूपी घोटाले रिस-रिस कर दिखाई देते हैं।हम इस नासूर की संडाध को अपनी नाक पर रूमाल रखकर साफ बने रहने की कोशिश करते हैं।
जिस देश का शासक शासितों से दूरी मैंटेन करना अपना बडप्पन समझता हो,अपना धर्म समझता हो,वहॉ बहुत आसानी से समझा जा सकता है कि इस देश का लोकतंत्र सिर्फ ढोंग है।क्या कभी कोई आम आदमी आसानी से देश के मंत्री या शासन में बैठे अधिकारी से मिलकर अपना दुख-दर्द बता सकता है।शायद नहीं,इसके लिये उसे छुटभैया नेता या दलाल का सहयोग लेना ही पडेगा।इसके ऐवज में खर्चा-पानी रिश्वत नहीं है,यह आधुनिक शब्दों में सर्विस है।तो भैया मेरे राडिया बहना से रार क्यों ठान रखी है,क्यों हर एक उसके पीछे पड गया है।यहॉ राडिया नहीं तो कोई बरखा होगी,या प्रभु चावला के रूप में देशी,लेकिन अग्रेंजियत धंधें को अपनाने वाला पत्रकार।जरूरत इस बात की है कि हम दिलो दिमाग से खुले होने की समतावादी सोच में जीने की आदत डालें,तभी हम सबके लिये अच्छा होगा।
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