भ्रष्ट गण से गणतंत्र तक
दिनांक – 28 जनवरी 2011
विदेशी के स्विस बैंक में देश के कुछ भ्रष्ट लोगों का काला धन जमा हैं। यह बात आज से नहीं बल्कि बिसियों सालों से सुनने में चला आ रहा है। जरा आप सोचिए इस दरमियान न जाने कितनी सरकारें आयी और चली गई। जहाँ तक याद पड़ता है, यह मुद्दा वी0 पी0 सिंह सरकार के सत्ता में रहते हुए उठी थी। लेकिन उसे घुमा फिरा कर यह प्रकरण दबा दिया गया। यदि हमारे देश के नेता, मंत्री और नौकरशह इनमें से कोई एक भी तंत्र सही होता तो बहुत पहले ही दोषियो को सजा मिल जाती और देश का सारा का सारा धन बापस आ जाता और यह मुद्दा कभी का खत्म हो चुका होता। यहाँ एक बात जरुर है कि स्विटजरलैंड का कानून भी समय-समय पर इसके आड़े आता रहा लेकिन कई साल गुजर जाने के बाद ही सन 2009 में स्विट्जरलैंड और भारत के बीच दोहरे काराधान के एक संधि पर हस्ताक्षर जरुर हुए हैं, लेकिन यह संधि स्विस बैंक में जमा कालेधन को वापस देश में लाने की गारंटी नहीं देता है। यह तो एक नाममात्र का प्रयास भर है। आज दिनांक -24 जनवरी 2011 को गूगल समाचार में प्रकाशित यह खबर पढ़ा कि स्विस बैंक में खाता रखने वाले कुछ एक लोगों के नाम पता चल गये हैं, लेकिन कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए भारत सरकार की ओर से श्री प्रणब मुखर्जी ने उन लोगों के नाम सार्वजनिक करने से मना कर दिया। “ग्लोबल फिनेंशियल इंटीग्रिटी” संस्था के अनुसार केवल सन् 2000 से 2008 तक चार करोड़ आठ लाख रुपये (4.8 लाख करोड़ ) देश से बाहर भेजे गये। इससे पहले न जाने और भी कितना कुछ गया होगा उसकी सटीक जानकारी नहीं है। लेकिन सरकार का कहना है कि “डबल टैक्सेशन समझौता” या “एक्सचेंज ऑफ टैक्सेशन इन्फोर्मेशन एग्रीमेंट” के रास्ते या इनकम टैक्स विभाग यदि टैक्स चोरों के खिलाफ केस दर्ज करें तो इस मुद्दे को आगे बड़ाया जा सकता है। क्योकि आयकर अधिकारियों के पास कानूनी ताकत है, जिसके तहत वे कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं। इस संम्बंध में देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी केंन्द्र सरकार को झिड़की लगाई और कहा काले धन को केन्द्र टैक्स मे क्यों उलझा रही है। खैर भविष्य में जो भी हो काले धन को देश में वापस लाने के लिए, दृढ़ इच्छा शक्ति से आज तक किसी भी सरकार द्वारा उपयुक्त कार्यवाही या सार्थक प्रायास किया ही नही गया। काले धन रखने वालों के नामो की जानकारी करने से लेकर न जाने और क्या-क्या पापड़ बेलते देखे गए इसके लिए देश के मंत्री से लेकर उच्च पदस्थ अधिकरीयों के स्विट्जरलैंड दौरों पर देश के जनता के गाड़ी कमाई का सफेद धन, अनेकों बार काले धन को देश में वापस लाने पर खर्च किया गया, और यह सफेद धन भी काले धन में तबदील हो गया। काला तो काला कले रंग में चाहे कोई भी रंग मिला दीजिए बह रंग काला हो जायेगा। खैर यह जरुर है कि यदि कोइ भी सरकार दृढ निंश्चय कर ले कि स्विसबैंक में पड़ा काला धन देश में वापस लाना है तो इस काम को सही दिशा देने के लिए अन्य तरीकों पर भी गौर करना चाहिए था। लेकिन किसे पड़ी है कि इतना जिद्दो-जहद करें उससे उन्हे क्या मिलेगा। ऊपर से ऐसे लोगों से पगां, शत्रुता मोल क्यों लिया जाये। यह मुद्दा हमारे देश मे अभी तक जिंदा है, यह अपने आपमें एक बहुत बड़ी बात है, नहीं तो इतने साल गुजर जाने के बाद लोगों द्वारा इसको भुला दिया जाता। हमारे हिन्दुस्तान के नेता, मंत्री और नौकरशाह जो लोग शायद कभी नहीं सुधर पाएंगे जब तक कि वे खुद नहीं सुधरना चाहेंगे, या जब तक कि उनका कोई बहुत बड़ा अनिष्ट या घटना न घटित हो जाए। भारतीय सहिष्णुता के लिए जाने जाते हैं। सहिष्णुता का यह मतलब कतई नहीं होता है कि आपका घर लुट रहा हो और आप तमाशाई बने देखते रहें, उसे तनिक भर भी रोकने का साहस न जुटा पायें या रोकने की जरुरत महसूस न करें। वह भी जब कोइ विदेशी नही वल्कि अपने ही देश का हो यह तो सरासर दब्बू और कायरता की पहचान है। ऐसे में हमारे देश के लोगों द्वारा चुने जाने वाला सरकार या नेताओं से हम क्या उम्मीद कर सकते हैं ? अक्सर यह देखा गया है कि दब्बू या कायर लोग जब कोई भी काम करते हैं तो उसे छुपाते हैं किसी को पता न लग जाये इस बात का भरसक प्रयास करते रहते हैं, उन्हे इस बात का हमेशा डर लगा रहता है क्योंकि दुसरों के द्वारा या सामाजिक विरोध-प्रतिक्रिया और उठने वाली बातों को वे सहन नहीं कर पाते हैं। या उसका सामना करना नही चाहते हैं। जिससे उनका सामाजिक दुर्दशा एवं स्तर पर फर्क पड़ता है, घर-परिवार की या निजी बातें तो एक अलग मुद्दा है, यही आदतें उन्हे चोरी करने को प्रेरित करती रहती है, और हमेशा डरे-सहमे से रहते हैं। हमारे समाज में ऐसे लोग की एक बड़ी संख्या हैं, जिनके पास यह आंकलन करने की क्षमता नहीं होती है, कि कौन सी बात कब कहाँ और किससे कहना है या नहीं। अभी-अभी हमने सुभाष जयन्ती और छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाया। प्रत्येक छब्बीस जनवरी और पंन्द्रह अगस्त के दिन हमरे देशवासीयों का मष्तक अपने आप गर्व से उच्चाँ हो जाता है, आजादी की शुरुआती दौर से कुछ वर्षों तक सम्पूर्ण राष्ट्र का जन समुदाय जोश एवं एक नयी उर्जा से ओतप्रोत दिखाई पड़ता था। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था कि हमारे देशवासी तीन सौ बर्षो तक अंग्रेजों के गुलामियत के जंजीरों से जकड़े रहे हैं अतः हमें एकाएक मिली इस आजादी की इतनी बड़ी खुशी को पा कर हमारा दिमाग एकदम स्वतंन्त्र होकर अपनी सुध–बुध ही खो बैठें और इसका फायदा कोइ अन्य रुप से उठा लें इसलिए हमारी स्वतंत्रा को अछुण रखने के लिए देशवासियों को धीरे-धीरे आजादी का अहसास होने दिया जाये। परन्तु हुआ वही जो शायद नहीं होना चाहिए था। देशवासियों को अचानक आजादी की खबर सुना दी गई और देश की जनता उन्मादी खुशीयों मे तल्लिन हो गई, घर-घर घी के दीपक जलाये जाने लगे। मुट्ठी भर लोगों ने देश के साशन अपने हाथ में लेकर सत्ता पर काबिज होने की तैयारी कर ली। उस समय साशन अपने हाथ में लेने वाले लोगों में से जो उन्ही का विरोध करते उन्हे देश के संविधान लिखने में खुछ एक को अन्य प्रशासनिक कामों में लगा कर जनता से उन्हे दूर रक्खा गया। उस वक्त देशवासी इतनी बड़ी खुशी के आगे किसी भी अन्य नेता या लोगों की बात को तबज्जो नही दे पाये इसी बजह से किसी का ध्यान कौन क्या कर रहा है, इस ओर गया ही नहीं इस तरह बचे खुचे उनके विरोधी भी अलग-थलग पड़ गये। और सही समय देख कर वही लोग सत्ता पर काबिज हो गये। जो बिज हमारे जन-मानष द्वारा आज बोया जायेगा बह कल उन्हे या उनके पूर्वजों को कटना ही पड़ेगा और बही फसल हम वर्तमान में काट रहे हैँ। सत्य बहुत कड़ुवा होता है और कड़वी चीज किसी को भी पसंन्द नहीं है। दवाई कड़वी जरुर होती है, लेकिन दवाई ही फायदा पहुँचाती है।
sundar lekh
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