तुमको कभी सच बतलाने की कोशिश नहीं की मैनें।
सच है यह, कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की मैनें।।
चारों-सूं तुम्हारी खुशबू लिये उड़ता फिरा मैं लेकिन,
कभी गुलों को बहकाने की कोशिश नहीं की मैनें।
तेरा बिछडऩा बार-बार, दर्द देकर गया हर बार,
तुझको ये जख्म दिखलाने की कोशिश नहीं की मैनें।
दिल तो बहुत चाहता था सुर्ख गुलाब दे दूं तुझको,
खुद को हौसला दिलाने की कोशिश नहीं की मैनें।
तसव्वुर रहा मेरा, तुम बन जाओ मेरी अमृता लेकिन,
खुद को इमरोज बनाने की कोशिश नहीं की मैनें।
रविकुमार बाबुल
wah!
ReplyDeleteआदरणीय शालिनी कौशिक जी,
ReplyDeleteयथायोग्य अभिवादन् ।
मेरी रचना पर आपके कमेन्ट पढने को मिला, जिससे आगे भी लिखते रहने का हौसला मुझे मिलता रहेगा। जिन प्रवृति के लोगों से आपको नफरत है, मुझे भी ऐसे लोगों से स्नेह नहीं है।
शुक्रिया।
धन्यवाद।
रविकुमार बाबुल,
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आदरणीय डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय जी,
यथायोग्य अभिवादन् ।
मेरी रचना पढ़ कर आपको अच्छा लगा, शुक्रिया। प्रेम जिन्दगी होती है और जिन्दगी इन्सान को जिन्दा बनाये रखती है सो प्रेम के लिये इन्सानी शक्लोसूरत की कतई जरुरत नहीं है, बहुत कुछ है प्रेम करने के लिये समाज-देश, जंगल, पर्यावरण।
आपका शुक्रिया।
धन्यवाद।
रविकुमार बाबुल ,
फीचर-सम्पादक
बीपीएन टाइम्स
ग्वालियर
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