अंग्रेजों ने क्या सोंचकर वकीलों को काला कपडा पहनाया था इसका महज अनुमान ही लगाया जा सकता है.शायद उन्होंने सोंचा हो कि जिस तरह इस रंग पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ाया जा सकता उसी तरह इसे पहननेवालों पर भी झूठ और लालच का रंग नहीं चढ़ेगा.लेकिन हो रहा है ठीक इसके उलट.इसे पहनकर कई लोगों द्वारा सिर्फ झूठ ही बोला जा रहा है और मुवक्किलों के विश्वास का नाजायज फायदा उठाया जा रहा है.
हाजीपुर व्यवहार न्यायालय में ऐसे वकीलों की एक बड़ी संख्या है जो पहले वकीलों के मुंशी थे और बाद में वकालत की डिग्री हासिल कर ली.जब ये लोग काला कोट नहीं पहनते थे यानी सिर्फ मुंशी थे तब इनका काम थोड़ी-सी हेराफेरी करके मुवक्किल की जेब से १०-२० रूपये ज्यादा निकाल लेने तक सीमित था.जैसे ही इन्होंने काला कोट पहना इनके हाथों में ठगने की अनियंत्रित शक्ति आ गई.अब वे हरेक मुवक्किल को १०-२० रूपयों का नहीं बल्कि हजारों-हजार रूपये का चूना लगा रहे हैं.वे एकसाथ मुंशी भी हैं और वकील भी.
मैं खुद भी एक ऐसे मुंशी-कम-वकील की शैतानी का शिकार हो चुका हूँ.मामला दखल कब्ज़ा का है.प्रारंभिक और अंतिम डिग्री हुए कई साल हो चुके हैं.उसने कहीं कोई काम नहीं बढाया और तारीख पर तारीख लेने का झूठ बोलकर हमसे लाखों रूपये ऐंठ लिए.चूंकि वह मेरे पिताजी का शिष्य रह चुका है इसलिए उस पर न तो पिताजी को ही कभी संदेह हुआ और न ही मुझे.अब हमारे पास खून के घूँट पीकर रह जाने के सिवा कोई उपाय नहीं रह गया है.
बात सिर्फ मेरी रहती तो मैं न तो यह लेख लिखता और न ही काले कोट पर कीचड़ उछालने की जहमत ही उठाता.लेकिन काले कोट द्वारा ठगा गया न तो मैं पहला आदमी हूँ और न ही आखिरी.मेरे जैसे हजारों-लाखों बेबस लोग न्याय की उम्मीद लिए कचहरी में आते हैं और लूट लिए जाते हैं.काले कोट की प्रतिबद्धता का मामला सिर्फ हाजीपुर व्यवहार न्यायालय तक ही सीमित नहीं है.यह तो सिर्फ एक बानगी है.इस तरह के ठगों से यह पूरा व्यवसाय अटा पड़ा है.अच्छे लोग हाजीपुर कचहरी में भी हैं लेकिन बहुत कम.इस तालाब की गन्दी मछलियाँ इतनी सयानी हैं कि धीरे-धीरे मुवक्किल को निगलती रहती हैं और वह उन्हें अपना हितैषी समझता रहता है.उनकी किस्सागोई को देखकर तो शायद आज प्रेमचंद होते तो खुद भी चक्कर खा जाते.
बार-बार मीडिया में मीडिया के नियमन की बातें आती रहती हैं लेकिन इन काले कोट वालों के नियमन का मामला कभी मीडिया या किसी भी मंच पर नहीं आता.जबकि यह व्यवसाय सीधे तौर पर व्यवस्था पर लोगों के विश्वास के क्षरण से जुड़ा हुआ है.यहाँ स्वनियंत्रण से बात नहीं बननेवाली है क्योंकि पूरे कुएँ में ही भांग पड़ी है.कोई मुवक्किल किसके पास जाएगा,अगर वो भी वैसा ही हुआ तो?
मैं देश के हजारों-लाखों वकील-पीड़ित मुवक्किलों की तरफ से केंद्र सरकार से मांग करता हूँ कि सरकारी तौर पर ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे लाचार और बेबस लोगों को वकीलों की ठगी का शिकार होने से बचाया जा सके.उनकी मॉनिटरिंग की जाए जिन्होंने कानून की पढाई ही नैतिकता के हनन के लिए की है.जब भी कोई वकील ठगी में लिप्त पाया जाए तो उसपर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया जाए.अन्यथा लोग न्यायालय नहीं जाएँगे और इससे अंततः कानून को अपने हाथों में लेने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा.वैसे भी लोग न्यायालयों में होनेवाले प्रक्रियागत विलम्ब से पहले से ही परेशान हैं.
हाजीपुर व्यवहार न्यायालय में ऐसे वकीलों की एक बड़ी संख्या है जो पहले वकीलों के मुंशी थे और बाद में वकालत की डिग्री हासिल कर ली.जब ये लोग काला कोट नहीं पहनते थे यानी सिर्फ मुंशी थे तब इनका काम थोड़ी-सी हेराफेरी करके मुवक्किल की जेब से १०-२० रूपये ज्यादा निकाल लेने तक सीमित था.जैसे ही इन्होंने काला कोट पहना इनके हाथों में ठगने की अनियंत्रित शक्ति आ गई.अब वे हरेक मुवक्किल को १०-२० रूपयों का नहीं बल्कि हजारों-हजार रूपये का चूना लगा रहे हैं.वे एकसाथ मुंशी भी हैं और वकील भी.
मैं खुद भी एक ऐसे मुंशी-कम-वकील की शैतानी का शिकार हो चुका हूँ.मामला दखल कब्ज़ा का है.प्रारंभिक और अंतिम डिग्री हुए कई साल हो चुके हैं.उसने कहीं कोई काम नहीं बढाया और तारीख पर तारीख लेने का झूठ बोलकर हमसे लाखों रूपये ऐंठ लिए.चूंकि वह मेरे पिताजी का शिष्य रह चुका है इसलिए उस पर न तो पिताजी को ही कभी संदेह हुआ और न ही मुझे.अब हमारे पास खून के घूँट पीकर रह जाने के सिवा कोई उपाय नहीं रह गया है.
बात सिर्फ मेरी रहती तो मैं न तो यह लेख लिखता और न ही काले कोट पर कीचड़ उछालने की जहमत ही उठाता.लेकिन काले कोट द्वारा ठगा गया न तो मैं पहला आदमी हूँ और न ही आखिरी.मेरे जैसे हजारों-लाखों बेबस लोग न्याय की उम्मीद लिए कचहरी में आते हैं और लूट लिए जाते हैं.काले कोट की प्रतिबद्धता का मामला सिर्फ हाजीपुर व्यवहार न्यायालय तक ही सीमित नहीं है.यह तो सिर्फ एक बानगी है.इस तरह के ठगों से यह पूरा व्यवसाय अटा पड़ा है.अच्छे लोग हाजीपुर कचहरी में भी हैं लेकिन बहुत कम.इस तालाब की गन्दी मछलियाँ इतनी सयानी हैं कि धीरे-धीरे मुवक्किल को निगलती रहती हैं और वह उन्हें अपना हितैषी समझता रहता है.उनकी किस्सागोई को देखकर तो शायद आज प्रेमचंद होते तो खुद भी चक्कर खा जाते.
बार-बार मीडिया में मीडिया के नियमन की बातें आती रहती हैं लेकिन इन काले कोट वालों के नियमन का मामला कभी मीडिया या किसी भी मंच पर नहीं आता.जबकि यह व्यवसाय सीधे तौर पर व्यवस्था पर लोगों के विश्वास के क्षरण से जुड़ा हुआ है.यहाँ स्वनियंत्रण से बात नहीं बननेवाली है क्योंकि पूरे कुएँ में ही भांग पड़ी है.कोई मुवक्किल किसके पास जाएगा,अगर वो भी वैसा ही हुआ तो?
मैं देश के हजारों-लाखों वकील-पीड़ित मुवक्किलों की तरफ से केंद्र सरकार से मांग करता हूँ कि सरकारी तौर पर ऐसी व्यवस्था की जाए जिससे लाचार और बेबस लोगों को वकीलों की ठगी का शिकार होने से बचाया जा सके.उनकी मॉनिटरिंग की जाए जिन्होंने कानून की पढाई ही नैतिकता के हनन के लिए की है.जब भी कोई वकील ठगी में लिप्त पाया जाए तो उसपर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया जाए.अन्यथा लोग न्यायालय नहीं जाएँगे और इससे अंततः कानून को अपने हाथों में लेने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा.वैसे भी लोग न्यायालयों में होनेवाले प्रक्रियागत विलम्ब से पहले से ही परेशान हैं.
bhaai kotaa men bhi munshi se bne vkilon ki yhi halt he aap is mamle men agr koi pukhta prmaan hon to baar konsil men shikaayt krne vkil saahb kaa kaala kot khunti pr tnk jaayegaa aap ko khtraa lge to mujhe btaayen men shikaayt krungaa or fir aap tmasha dekho lekin bs men bhi kaala kot hun or hana angrezon ne kbhi vkilon ko kalaa kot nhin phnaaya angrezon ki adaalten thndi jgh pr lgti thin or vhaan angrez hi adhiktr vkil hote the isliyen goron pr kaala kot jmta tha jb se hi yeh kaali prmpraa hm nibha rhe hen or bdl nhin paa rhe hen . akhtar khan akela kota rajsthan
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