आम तौर से नख-शिख वर्णन की परंपरा रही है । पर , कहीं-न-कहीं ऐसा वर्णन नारी को एक प्रतिमा की तरह स्थिर बनाता है । साहित्य में मुझे जानते ही कितने लोग हैं , पर , मैं जो कुछ भी हूँ ,विद्रोही नहीं हूँ । हाँ , प्रयोगात्मक हूँ , वह भी हमेशा नहीं ।' प्रेमांजलि' में मैंने एक जगह शिख-नख वर्णन का प्रयोग किया । क्या यह नायिका को गत्यात्मक बनाता है ?
वह कोई अमृत था ( प्रियप्रलाप-प्रेमांजलि )
बादल जैसे केश-पाश
आँखें हैं जैसी झीलें ,
अधरामृत को ऐ मन-मधुकर ,
पीले ,पीले , पीले ।
उन रसाल किसलय पत्रों पर
दन्त-पंक्ति के मोती,
जब कुछ कहती है
कानों को कहाँ चेतना होती ?
नाक-नक्श ऐसा हो जाए
स्वयं कृष्ण दीवाना ,
छूने आ जाये बन कोई
भ्रमर-शलभ-परवाना ।
क्षीर -सिन्धु जैसे कपोल
हरि शयन जहां करते हैं ;
जिन्हें देख वंचित प्रणयी
अक्सर आहें भरते हैं ।
पीत धवल उन्नत वक्षस्थल
पर हिरण्य आभूषण ,
शीतकाल के मेघों पर ज्यों
चमक रहा हो पूषण ।
पादप की कच्ची टहनी -सी
कोमल उसकी बाहें ,
कटिप्रदेश के आकर्षण से
होतीं विवश निगाहें ।
कनक-वलय आवृत कर-पंकज
मणि किरणों की रेखा ,
वस्त्रावृत नितम्ब जघनों को
चहत मनचला देखा ।
पादाम्बुज द्वय के ऊपर
वह रतन रजत की पायल ,
गज गामिनी -सी चाल
किये जाती थी उसको घायल ।
वही सहज था , वही दिव्य था
और वही प्राकृत था,
मरणशील पर झरनेवाला
वह कोई अमृत था ।
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