सुशासन की परम कृपा से बिहार में इन दिनों सारे कार्यालय दुकानों में बदल गए हैं.भले ही इनकी दीवारों पर उच्चतम न्यायलय की सलाह के अनुसार सुविधा-शुल्कों की रेट-लिस्ट लगायी नहीं गयी है लेकिन प्रत्येक काम का रेट नियत जरुर है.यूं तो वह भी अन्य बिहारियों की तरह सरकारी कार्यालयों में जाने से बचने का भरसक प्रयास करता है लेकिन जब जाना निश्चित हो और इससे बचने का कोई मार्ग नहीं बचे तो?
मित्रों,हुआ यूं कि मेरे मित्र के परिवार ने अपने शहर में एक जमीन रजिस्ट्री कराई;९५० वर्ग फुट का छोटा-सा टुकड़ा.कब तक किराये के मकान में रहा जाए?हर चीज से मन उबता है;यहाँ तक कि जीते-जीते ज़िन्दगी से भी.जमीन रजिस्ट्री हो जाने के बाद अगली अनिवार्य प्रक्रिया होती है जमीन का दाखिल ख़ारिज या नामांतरण करवाने की.इस प्रक्रिया के द्वारा जमीन की रसीद नए खरीददार के नाम पर कटने लगती है.उसके हलके का राजस्व कर्मचारी इस बात से परिचित है कि वह एक पत्रकार है और उसने कई बार उसे हिंदुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपते भी देखा है.इसलिए जैसे ही उसने रजिस्ट्री की छाया-प्रति उसे दी वह निर्धारित फॉर्म निकालकर उसमें नामादि चुपचाप भरने लगा;बिना पैसे की मांग किए.इससे पहले वह अपने एक परिचित जो डी.सी.एल.आर. कार्यालय में पेशकार हैं;से इस बारे में सलाह ले चुका था.उनका कहना था कि अगर वह पत्रकार होने के नाते घूस नहीं देता है तो काम होने में काफी परेशानी आएगी.उनका मानना था कि राजस्व कर्मचारी को २५०० रूपये दे देना सही रहेगा.इसलिए उसने कर्मचारी को ही दाखिल ख़ारिज का काम सौंप दिया और २५०० रूपये भी दे दिए.कर्मचारी ने काम को आगे तो बढाया लेकिन एक महीने के बाद.
दरअसल मामला काबिल लगान का था यानि जमीन का लगान अब तक विधिवत निर्धारित नहीं था.इसलिए अंचलाधिकारी (सी.ओ.) कार्यालय से लगान निर्धारण का प्रस्ताव डी.सी.एल.आर.कार्यालय में जाना था.अगर वह पूरा सुविधाशुल्क देता तो उसे कुल ५००० रूपये देने पड़ते;२५०० अंचल कार्यालय के लिए और २५०० रूपये डी.सी.एल.आर. कार्यालय के लिए.लेकिन चूंकि डी.सी.एल.आर. के पेशकार उसके पुराने परिचित थे और उनसे उसका घरेलू सम्बन्ध था इसलिए उसे २५०० रूपये ही देने पड़े,हालाँकि यह राशि भी कम नहीं होती खासकर गरीबों के लिए.उसने कई बार अपने परिचित पेशकर जिनका जिक्र मैंने पहले भी किया है;से सी.ओ. के यहाँ से भेजा गया पत्र वहां पहुंचा या नहीं पूछा.लेकिन हमेशा उत्तर नकारात्मक रहा.अंत में उसने झुंझलाकर दो माह गुजर जाने के बाद राजस्व कर्मचारी से पत्र संख्या बताने को कहा.कई दिनों के इंतजार के बाद कर्मचारी ने संख्या बताई जिसे उसने पेशकर महोदय को दे दिया.उसे आश्चर्य हुआ कि जो पत्र दिसंबर के पूर्वार्द्ध में ही भेज दिया गया था वह दो महीने में कैसे २ किलोमीटर दूर ठिकाने तक नहीं पहुंचा.वह समझ गया था कि चूंकि पेशकार परिचित था इसलिए शर्म के मारे पैसे नहीं मांग रहा था और काम को भी आगे नहीं बढ़ा रहा था;असमंजस में था भोलाभाला.पेशकार महोदय द्वारा वस्तुस्थिति बताने में बार-बार टालमटोल करने के बाद उसे ताव आ गया और वह जा पहुंचा डी.सी.एल.आर. कार्यालय.यहाँ मैं आपको यह बताता चलूँ कि जैसा कि उसने मुझे बताया कि उसके पिताजी जो प्रोफ़ेसर हैं;के उस पेशकार पर बड़े उपकार थे.उन्होंने अन्य छात्रों की तरह ही बिना एक पैसा लिए भूतकाल में नमकहराम पेशकार की बेटी को नोट्स और गेस प्रश्नों की सूची दी थी.लेकिन जब समाज में पैसा ही सबकुछ हो जाए तो निःस्वार्थ उपकारों का कोई मोल नहीं रह जाता है.
उसे साक्षात् प्रकट हुआ देखकर पेशकार महोदय घबरा गए और जल्दी ही स्वीकृति का पत्र भेजने का आश्वासन दिया.कल होकर ही स्वीकृति का पत्र अंचलाधिकारी के यहाँ भेज भी दिया गया और पेशकर बाबू ने स्वयं फोन करने की जहमत उठाते हुए उसे पत्र संख्या भी बता दी.लेकिन राजस्व कर्मचारी ने पूछने पर बताया कि पत्र पर भूमि सुधार उपसमाहर्ता यानि डी.सी.एल.आर. का हस्ताक्षर ही नहीं है.उसके साथ फिर से धोखा हुआ था.एक बात फिर से उसे डी.सी.एल.आर.की दहलीज पर जाना पड़ा.वहां उसी कार्यालय के एक कर्मचारी ने उसे बताया कि यहाँ घूस का इतना अधिक बोलबाला है कि पेशकार बिना नजराना दिए फाईल डी.सी.एल.आर. के टेबुल पर रख ही नहीं सकता क्योंकि साहब बिना महात्मा गाँधी के दर्शन किए दस्तखत ही नहीं करेंगे;इतनी मेहनत और ईमानदारी से पढाई इसलिए तो की थी महाशय ने.फिर कोई १० दिनों के बाद राजस्व कर्मचारी ने उसे अपने निवास पर बुलाया.उसने उसे शुद्धि-पत्र तो थमा दिया लेकिन रसीद लेने के लिए परदे के पीछे अपने साले के पास भेज दिया.यह कर्मचारी भी संयोग से उसके ननिहाल के बगल के गाँव का महादलित निकला.हालाँकि जब उसने उसे २५०० रूपये दिए थे तब उसे यह बिलकुल भी पता नहीं था.साले ने परदे के पीछे जाते ही रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए कहा कि ८९ रूपये की तो रसीद ही कट रही है;उसे भी ऊपर से १०० रूपये चाहिए.आखिर उसने भी तो मेहनत की है;पसीना बहाया है.कैसी मेहनत पता नहीं?वह इस तरह बात कर रहा था जैसे उसने ही कर्मचारी को ५-५ अवैध सहायक रखने को कहा था.यहाँ तो कर्मचारी का सारा कुनबा जमा था महाभोज में शामिल होने के लिए.खैर उसे कोर्ट में काम था और वह हड़बड़ी में था इसलिए उसने चुपचाप उसे २०० रूपये दे दिए.साथ ही एक और जमीन की रसीद भी काटने को कहा.सुनते ही एक तरफ सारी खुदाई और एक तरह जोरू के भाई ने बताया कि रसीद पुस्तिका के आखिरी पन्ने के रूप में अभी-अभी उसी की जमीन की रसीद काटी गयी है.वह इस तरह की भाषा से अपरिचित नहीं था.उसे पत्रकार होते हुए भी टहलाया जा रहा था.गुस्सा स्वाभाविक था.वह जा पहुंचा राजस्व कर्मचारी के पास और नाराजगी दिखाते हुए शिकायत की.फिर तो उसी साले साहब ने यह कहते हुए कि दाखिल ख़ारिजवालों के लिए रसीद बचाकर रखनी पड़ती है;रसीद काट दी और इस तरह दाखिल ख़ारिज का महती काम पूरा हुआ और उसने और उसके परिवार ने काफी दिनों के बाद चैन की साँस ली.मूल कथा तो यहीं समाप्त होती है अब थोड़ी इसकी समालोचना भी कर ली जाए.
हम यह भी बताते चलें कि इस समय पूरे बिहार में सुशासन के कुशासन की वजह से राजस्व रसीद की जबरदस्त किल्लत चल रही है.वजह यह है कि बिहार सरकार ने हर तरह के प्रमाण-पत्रों को निर्गत करने के लिए ताजी-गरम राजस्व रसीद लगाना अनिवार्य कर दिया है;लेकिन अतिरिक्त राजस्व रसीदों की छपाई नहीं कर पा रही है.ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है या कोई मजबूरी है कह नहीं सकता.लोग एक अदद रसीद के लिए महीनों राजस्व कर्मचारी की परिक्रमा करते रहते हैं और इस बीच उनका काम ख़राब भी हो जाता है.वांछित प्रमाण-पत्र नहीं दे पाने के चलते कईयों को तो नौकरी मिलते-मिलते भी रह जाती है.
यह एक कटु सत्य है कि बिहार में निगरानी विभाग ने जिन लोगों को रंगे हाथों घूस लेते पकड़ा है उनमें से अधिकतर राजस्व कर्मचारी हैं और अधिकतर ट्रैप-पकड़ घटनाओं में मामला दाखिल ख़ारिज का ही होता है.अगर मामला सामान्य है तो १ दाखिल ख़ारिज के लिए ढाई से तीन हजार रूपये मांगे जाते हैं और अगर काबिल लगान का मामला हो तो कांटा ५ हजार तक भी पहुँच जाता है.चूंकि जनता के सीधे संपर्क में सिर्फ राजस्व कर्मचारी होता है इसलिए जेलयात्रा भी सिर्फ उसी के हिस्से आती है जबकि उसे उस राशि में से कुछ-न-कुछ हर टेबुल पर पेश करनी पड़ती है.प्रतिदिन कम-से-कम ५ दाखिल ख़ारिज के मामले १ राजस्व कर्मचारी के पास आते हैं.अगर मोटे तौर पर हिसाब लगाएं तो ज्यादा-से-ज्यादा १५-२० हजार मासिक वेतन वाला राजस्व कर्मचारी महीने में कम-से-कम १ लाख रूपये की ऊपरी कमाई कर रहा है;अधिकारियों यथा अंचलाधिकारी वगैरह की अवैध कमाई तो और भी ज्यादा;इससे कई गुना होगी.
मित्रों,हुआ यूं कि मेरे मित्र के परिवार ने अपने शहर में एक जमीन रजिस्ट्री कराई;९५० वर्ग फुट का छोटा-सा टुकड़ा.कब तक किराये के मकान में रहा जाए?हर चीज से मन उबता है;यहाँ तक कि जीते-जीते ज़िन्दगी से भी.जमीन रजिस्ट्री हो जाने के बाद अगली अनिवार्य प्रक्रिया होती है जमीन का दाखिल ख़ारिज या नामांतरण करवाने की.इस प्रक्रिया के द्वारा जमीन की रसीद नए खरीददार के नाम पर कटने लगती है.उसके हलके का राजस्व कर्मचारी इस बात से परिचित है कि वह एक पत्रकार है और उसने कई बार उसे हिंदुस्तान के सम्पादकीय पृष्ठ पर छपते भी देखा है.इसलिए जैसे ही उसने रजिस्ट्री की छाया-प्रति उसे दी वह निर्धारित फॉर्म निकालकर उसमें नामादि चुपचाप भरने लगा;बिना पैसे की मांग किए.इससे पहले वह अपने एक परिचित जो डी.सी.एल.आर. कार्यालय में पेशकार हैं;से इस बारे में सलाह ले चुका था.उनका कहना था कि अगर वह पत्रकार होने के नाते घूस नहीं देता है तो काम होने में काफी परेशानी आएगी.उनका मानना था कि राजस्व कर्मचारी को २५०० रूपये दे देना सही रहेगा.इसलिए उसने कर्मचारी को ही दाखिल ख़ारिज का काम सौंप दिया और २५०० रूपये भी दे दिए.कर्मचारी ने काम को आगे तो बढाया लेकिन एक महीने के बाद.
दरअसल मामला काबिल लगान का था यानि जमीन का लगान अब तक विधिवत निर्धारित नहीं था.इसलिए अंचलाधिकारी (सी.ओ.) कार्यालय से लगान निर्धारण का प्रस्ताव डी.सी.एल.आर.कार्यालय में जाना था.अगर वह पूरा सुविधाशुल्क देता तो उसे कुल ५००० रूपये देने पड़ते;२५०० अंचल कार्यालय के लिए और २५०० रूपये डी.सी.एल.आर. कार्यालय के लिए.लेकिन चूंकि डी.सी.एल.आर. के पेशकार उसके पुराने परिचित थे और उनसे उसका घरेलू सम्बन्ध था इसलिए उसे २५०० रूपये ही देने पड़े,हालाँकि यह राशि भी कम नहीं होती खासकर गरीबों के लिए.उसने कई बार अपने परिचित पेशकर जिनका जिक्र मैंने पहले भी किया है;से सी.ओ. के यहाँ से भेजा गया पत्र वहां पहुंचा या नहीं पूछा.लेकिन हमेशा उत्तर नकारात्मक रहा.अंत में उसने झुंझलाकर दो माह गुजर जाने के बाद राजस्व कर्मचारी से पत्र संख्या बताने को कहा.कई दिनों के इंतजार के बाद कर्मचारी ने संख्या बताई जिसे उसने पेशकर महोदय को दे दिया.उसे आश्चर्य हुआ कि जो पत्र दिसंबर के पूर्वार्द्ध में ही भेज दिया गया था वह दो महीने में कैसे २ किलोमीटर दूर ठिकाने तक नहीं पहुंचा.वह समझ गया था कि चूंकि पेशकार परिचित था इसलिए शर्म के मारे पैसे नहीं मांग रहा था और काम को भी आगे नहीं बढ़ा रहा था;असमंजस में था भोलाभाला.पेशकार महोदय द्वारा वस्तुस्थिति बताने में बार-बार टालमटोल करने के बाद उसे ताव आ गया और वह जा पहुंचा डी.सी.एल.आर. कार्यालय.यहाँ मैं आपको यह बताता चलूँ कि जैसा कि उसने मुझे बताया कि उसके पिताजी जो प्रोफ़ेसर हैं;के उस पेशकार पर बड़े उपकार थे.उन्होंने अन्य छात्रों की तरह ही बिना एक पैसा लिए भूतकाल में नमकहराम पेशकार की बेटी को नोट्स और गेस प्रश्नों की सूची दी थी.लेकिन जब समाज में पैसा ही सबकुछ हो जाए तो निःस्वार्थ उपकारों का कोई मोल नहीं रह जाता है.
उसे साक्षात् प्रकट हुआ देखकर पेशकार महोदय घबरा गए और जल्दी ही स्वीकृति का पत्र भेजने का आश्वासन दिया.कल होकर ही स्वीकृति का पत्र अंचलाधिकारी के यहाँ भेज भी दिया गया और पेशकर बाबू ने स्वयं फोन करने की जहमत उठाते हुए उसे पत्र संख्या भी बता दी.लेकिन राजस्व कर्मचारी ने पूछने पर बताया कि पत्र पर भूमि सुधार उपसमाहर्ता यानि डी.सी.एल.आर. का हस्ताक्षर ही नहीं है.उसके साथ फिर से धोखा हुआ था.एक बात फिर से उसे डी.सी.एल.आर.की दहलीज पर जाना पड़ा.वहां उसी कार्यालय के एक कर्मचारी ने उसे बताया कि यहाँ घूस का इतना अधिक बोलबाला है कि पेशकार बिना नजराना दिए फाईल डी.सी.एल.आर. के टेबुल पर रख ही नहीं सकता क्योंकि साहब बिना महात्मा गाँधी के दर्शन किए दस्तखत ही नहीं करेंगे;इतनी मेहनत और ईमानदारी से पढाई इसलिए तो की थी महाशय ने.फिर कोई १० दिनों के बाद राजस्व कर्मचारी ने उसे अपने निवास पर बुलाया.उसने उसे शुद्धि-पत्र तो थमा दिया लेकिन रसीद लेने के लिए परदे के पीछे अपने साले के पास भेज दिया.यह कर्मचारी भी संयोग से उसके ननिहाल के बगल के गाँव का महादलित निकला.हालाँकि जब उसने उसे २५०० रूपये दिए थे तब उसे यह बिलकुल भी पता नहीं था.साले ने परदे के पीछे जाते ही रहस्य पर से पर्दा उठाते हुए कहा कि ८९ रूपये की तो रसीद ही कट रही है;उसे भी ऊपर से १०० रूपये चाहिए.आखिर उसने भी तो मेहनत की है;पसीना बहाया है.कैसी मेहनत पता नहीं?वह इस तरह बात कर रहा था जैसे उसने ही कर्मचारी को ५-५ अवैध सहायक रखने को कहा था.यहाँ तो कर्मचारी का सारा कुनबा जमा था महाभोज में शामिल होने के लिए.खैर उसे कोर्ट में काम था और वह हड़बड़ी में था इसलिए उसने चुपचाप उसे २०० रूपये दे दिए.साथ ही एक और जमीन की रसीद भी काटने को कहा.सुनते ही एक तरफ सारी खुदाई और एक तरह जोरू के भाई ने बताया कि रसीद पुस्तिका के आखिरी पन्ने के रूप में अभी-अभी उसी की जमीन की रसीद काटी गयी है.वह इस तरह की भाषा से अपरिचित नहीं था.उसे पत्रकार होते हुए भी टहलाया जा रहा था.गुस्सा स्वाभाविक था.वह जा पहुंचा राजस्व कर्मचारी के पास और नाराजगी दिखाते हुए शिकायत की.फिर तो उसी साले साहब ने यह कहते हुए कि दाखिल ख़ारिजवालों के लिए रसीद बचाकर रखनी पड़ती है;रसीद काट दी और इस तरह दाखिल ख़ारिज का महती काम पूरा हुआ और उसने और उसके परिवार ने काफी दिनों के बाद चैन की साँस ली.मूल कथा तो यहीं समाप्त होती है अब थोड़ी इसकी समालोचना भी कर ली जाए.
हम यह भी बताते चलें कि इस समय पूरे बिहार में सुशासन के कुशासन की वजह से राजस्व रसीद की जबरदस्त किल्लत चल रही है.वजह यह है कि बिहार सरकार ने हर तरह के प्रमाण-पत्रों को निर्गत करने के लिए ताजी-गरम राजस्व रसीद लगाना अनिवार्य कर दिया है;लेकिन अतिरिक्त राजस्व रसीदों की छपाई नहीं कर पा रही है.ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है या कोई मजबूरी है कह नहीं सकता.लोग एक अदद रसीद के लिए महीनों राजस्व कर्मचारी की परिक्रमा करते रहते हैं और इस बीच उनका काम ख़राब भी हो जाता है.वांछित प्रमाण-पत्र नहीं दे पाने के चलते कईयों को तो नौकरी मिलते-मिलते भी रह जाती है.
यह एक कटु सत्य है कि बिहार में निगरानी विभाग ने जिन लोगों को रंगे हाथों घूस लेते पकड़ा है उनमें से अधिकतर राजस्व कर्मचारी हैं और अधिकतर ट्रैप-पकड़ घटनाओं में मामला दाखिल ख़ारिज का ही होता है.अगर मामला सामान्य है तो १ दाखिल ख़ारिज के लिए ढाई से तीन हजार रूपये मांगे जाते हैं और अगर काबिल लगान का मामला हो तो कांटा ५ हजार तक भी पहुँच जाता है.चूंकि जनता के सीधे संपर्क में सिर्फ राजस्व कर्मचारी होता है इसलिए जेलयात्रा भी सिर्फ उसी के हिस्से आती है जबकि उसे उस राशि में से कुछ-न-कुछ हर टेबुल पर पेश करनी पड़ती है.प्रतिदिन कम-से-कम ५ दाखिल ख़ारिज के मामले १ राजस्व कर्मचारी के पास आते हैं.अगर मोटे तौर पर हिसाब लगाएं तो ज्यादा-से-ज्यादा १५-२० हजार मासिक वेतन वाला राजस्व कर्मचारी महीने में कम-से-कम १ लाख रूपये की ऊपरी कमाई कर रहा है;अधिकारियों यथा अंचलाधिकारी वगैरह की अवैध कमाई तो और भी ज्यादा;इससे कई गुना होगी.
मित्रों,अभी आपने देखा की भ्रष्ट तंत्र घूस खाता है २७०० रूपये या ५२०० रूपये और सरकार के खाते में जाता है मात्र ८९ रूपया या इससे भी कम और सरकार कहती है कि राज्य विकास के पथ पर तीव्र गति से अग्रसर है.मित्रों,यह सच्ची कहानी तो बस एक बानगी भर है.मेरा दावा है कि आप बिहार सरकार के किसी भी कार्यालय से वाजिब काम भी बिना सुविधा-शुल्क दिए करा ही नहीं सकते.बिहार की जनता को प्रस्तावित सेवा के अधिकार से बड़ी उम्मीदें हैं.शायद इसके आने के बाद सरकारी गुंडागर्दी और रंगदारी वसूली सह ब्लैकमेलिंग बंद हो जाए और महंगाई पीड़ित बिहार की गरीब जनता की जेब में इतनी राशि बच जाया करे जिससे वह अपने आपको कुपोषित होने से बचा सके.शायद???
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