साथ छूटा सा लगता है, रिश्ता टूटा सा लगता है,
न जाने क्यूँ मुझे तू बदला-बदला सा लगता है |
सहलाए थे तूने जख्म जो मेरी जिन्दगी में आकर ,
हर वो जख्म मुझे अब हरा-हरा सा लगता है |
अक्टूम्बर में दिल के बाग़ मैं खिलाये थे फूल तूने,
नवम्बर की बारिश में भी हर फूल सूखा-सूखा सा लगता है |
अपने यार समझ के जिन से मिलाया था तुझ को,
तू भी और हर वो यार भी झूठा-झूठा सा लगता है |
यार भी रूठा,महाफिल भी रूठी और दिलदार भी रूठा,
न जाने क्यूँ, "ओह!गौड़" अब तो ये शहर भी सारा रूठा-रूठा सा लगता है |
कुलदीप गौड़
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