20.6.11

ये इस दौर का सिनेमा है...



- अतुल कुशवाह 
लीक से हटकर कथानक ,जीवन का यथार्थ और तैयार है नए दौर का यथार्थवादी सिनेमा । अब फिल्मे हमारे समय के दबाव में हैं । और रूढ़ियाँ टूट रही हैं। बालीवुड इस समय बहुत बड़े बदलाव से गुजर रहा है। नए-नए फिल्मकारों का जो समूह आया है, उसने कमाल कर दिया है। वे दर्शकों का स्वाद नए सिरे से गढ़ रहे हैं । लार्जर दैन लाइफ हीरोज की छाया से फिल्में मुक्त हो रही हैं. डकैत, विलेन, तस्कर और मरने मरने वाली लव स्टोरी के चंगुल से ऊपर उठकरफिल्मे आपकी रोजमर्रा की जिंदगी और उसकी समस्याओं में झांकने लगी हैं।
उनके पास एक सामाजिक संदेश है मगर भीड़ को आकर्षित करने की छमता नही है । छोटे बजट की बौद्धिक फ़िल्म आम जन को फोकस नही करती बल्कि भद्रलोक की परवाह करती है। उसे कोई ज्युबिली नही मनानी बस एक सप्ताह या दो सप्ताह चल गई तो सारा खर्च निकल आया और निर्देशक के मन को रचनात्मक संतोष भी मिला। नए साल में रोशन अब्बास, चंद्रकांत सिंह, सागर बलारी, अंकुश भट्ट, विनोद चबर, सुनीत अरोरा सरीखे निर्देशक अपनी ही जमीन तोड़ते नजर आयेंगे। चितकबरे, भिन्डी बाजार, माय हसबैंड'स  वाइफ, भेजा फ्राई टू सरीखी इन फिल्मो में चमकते चेहरे नही हैं, तीखे मसाले नही है और न ही ये फिल्मे उस बंधी बंधाई उस लीक पर चलती हैं जिस पर हिन्दी सिनेमा बरसों से चलकर सफल हो रहा है । इसके बाबजूद इन फिल्मो को स्वीकार गया और दर्शकों ने अपनी मेहनत की कमाई को इन पर खर्चकरना उचित समझा तो इसके सही मायने निकले जा सकते हैं की आने वाला वक्त शायद इसी किस्म के सिनेमा का है जो न तो पुरी तरह से सोलह मसालों वाली चाट है। और न ही दुरूह किस्म का सामानांतर सिनेमा है जो यथार्थ के नाम पर बोरियत परोसने का आदी हो चला था। ।

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