विपक्षी दलों अथवा किसी अन्य के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की कठपुतली कहे जाने पर भले ही स्वयं सिंह और सभी कांग्रेसियों को बुरा लगता हो, मगर मन ही मन वे भी जानते हैं कि वे कठपुतली ही हैं।
हाल ही में मनमोहन सिंह ने भले ही देश के प्रबुद्ध संपादकों के साथ एक औपचारिक वार्ता आयोजित कर देश और जनता के सामने मटियामेट हो रही छवि को सुधारने की कोशिश की, मगर वे उस छवि से बाहर निकल पाने में नाकामयाब ही रहे, जिसमें वे कैद हो चुके हैं। भले ही ईमारदार होने का तमगा उन पर लगा हुआ है, इसके बावजूद इस आरोप में लेश मात्र भी गलत नहीं है कि वे अब तक की सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं। खुद उनकी स्थिति ये है कि वे अब भी पहले की तरह आम जन से दूर हैं। वे एक राजनीतिकज्ञ कम, प्रशासनिक अधिकारी अधिक नजर आते हैं, जिसके पास खुद की कोई सोच नहीं है, अगर है भी तो उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है, वे कहीं और से संचालित होते हैं। सच्चाई तो ये है कि उनके बारे में यह धारणा पक्की हो चुकी है कि वे स्वयं निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। चाहे साझा सरकार की वजह से चाहे एक रिमोट चालित रोबोट की भांति कांग्रेस आलाकमान द्वारा नियंत्रित व निर्देशित होने की वजह से। इसका परिणाम ये हुआ है कि न तो वे भ्रष्टाचार पर काबू पा सके और न ही महंगाई पर। भले अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक परिस्थितियों का बहाना लिया जाए, मगर यह एक विडंबना ही है कि एक महान अर्थशास्त्री होने के बाद भी वे महंगाई पर काबू पाने का कोई फार्मूला नहीं निकाल पाए। उलटे वे यह कह कर बचने की कोशिश करते हैं कि उनके पास कोई जादूई छड़ी नहीं है।
कुल मिला कर उनके बारे में यह पक्का हो गया है कि भले ही पिछला चुनाव कमजोर बनाम लोह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी के नारे के बीच कांग्रेस भले ही फिर से सत्ता पर काबिज हो गई, और भाजपा को करारा जवाब मिला हो, मगर यह अब भी सच है कि वे एक कमजोर प्रधानमंत्री ही हैं। सीधी सच्ची बात है कि चुनाव भले ही उनके नेतृत्व में लड़ा गया हो, मगर खुद उनकी उसमें कोई भूमिका नहीं थी। कांग्रेस जीती तो अपने वर्षों पुराने नेटवर्क और सोनिया-राहुल के प्रति आकर्षण की वजह से। पहली बार भी वे अपनी राजनीतिक योग्यता की वजह से प्रधानमंत्री नहीं बने थे, बल्कि सोनिया गांधी की ओर से चयनित किए गए थे। हालांकि तब प्रधानमंत्री बननी तो सोनिया ही थीं, मगर उनके विदेशी मूल की होने के कारण देश में अराजकता पैदा किए जाने का खतरा था। साथ ही कोर्ट में भी चुनौती की पूरी संभावना थी। अत: मजबूरी में सबसे बेहतर विकल्प के रूप में उनका नंबर आ गया। ऐसे में उनकी निष्ठा और उत्तरदायित्व जाहिर तौर पर सोनिया गांधी के प्रति है, न कि देश के प्रति। और इसी कारण अब तक टिके हुए भी हैं। इसी तथ्य से जुड़ा एक पहलु ये है कि अगर सिंह की जगह कोई और भी होता तो उसे अपनी निष्ठा सोनिया के प्रति ही रखनी होती। वह भी कठपुतली रह कर कायम रह सकता था।
इन सब बातों के भीतर जाएं तो सच्चाई ये है कि हालांकि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है, मगर आज भी यहां परिवारवाद कायम है। नेहरू-गांधी परिवार के प्रति अनेक लोगों की निष्ठा है। भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी जरूर विचारधारा के आधार पर गठित हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का देश के कुछ इलाकों में जरूर असर है, मगर हिंदुवाद के नाम पर बनी भाजपा का हिंदुओं के एक बड़े तबके पर असर है। चूंकि देश धर्मनिरपेक्षता की नींव पर टिका है, इस कारण जैसे ही भाजपा अपने तेवर तेज करती है, धर्मनिरपेक्ष लोग कांग्रेस का हाथ थाम लेते हैं। कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है भी। उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि कांग्रेस परिवारवाद पर चल रही है। उसमें नेहरू-गांधी परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले सोनिया-राहुल की ही चलती है।
इसी सिलसिले में भाजपा की चर्चा करें तो वह भी कमोबेश राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कठपुतली है। भाजपाई और संघी चाहे लाख इंकार करें, मगर भाजपा के सारे महत्वपूर्ण निर्णय संघ ही करता है। अलबत्ता अब एक ऐसा तबका भी धीरे-धीरे उभर रहा है, जो संघ के उतना नियंत्रण में नहीं है। इसी वजह से भाजपा इन दिनों अंतर्संघर्ष से गुजर रही है। फिर भी मोटे तौर पर नियंत्रण संघ का ही है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
हाल ही में मनमोहन सिंह ने भले ही देश के प्रबुद्ध संपादकों के साथ एक औपचारिक वार्ता आयोजित कर देश और जनता के सामने मटियामेट हो रही छवि को सुधारने की कोशिश की, मगर वे उस छवि से बाहर निकल पाने में नाकामयाब ही रहे, जिसमें वे कैद हो चुके हैं। भले ही ईमारदार होने का तमगा उन पर लगा हुआ है, इसके बावजूद इस आरोप में लेश मात्र भी गलत नहीं है कि वे अब तक की सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं। खुद उनकी स्थिति ये है कि वे अब भी पहले की तरह आम जन से दूर हैं। वे एक राजनीतिकज्ञ कम, प्रशासनिक अधिकारी अधिक नजर आते हैं, जिसके पास खुद की कोई सोच नहीं है, अगर है भी तो उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है, वे कहीं और से संचालित होते हैं। सच्चाई तो ये है कि उनके बारे में यह धारणा पक्की हो चुकी है कि वे स्वयं निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। चाहे साझा सरकार की वजह से चाहे एक रिमोट चालित रोबोट की भांति कांग्रेस आलाकमान द्वारा नियंत्रित व निर्देशित होने की वजह से। इसका परिणाम ये हुआ है कि न तो वे भ्रष्टाचार पर काबू पा सके और न ही महंगाई पर। भले अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक परिस्थितियों का बहाना लिया जाए, मगर यह एक विडंबना ही है कि एक महान अर्थशास्त्री होने के बाद भी वे महंगाई पर काबू पाने का कोई फार्मूला नहीं निकाल पाए। उलटे वे यह कह कर बचने की कोशिश करते हैं कि उनके पास कोई जादूई छड़ी नहीं है।
कुल मिला कर उनके बारे में यह पक्का हो गया है कि भले ही पिछला चुनाव कमजोर बनाम लोह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी के नारे के बीच कांग्रेस भले ही फिर से सत्ता पर काबिज हो गई, और भाजपा को करारा जवाब मिला हो, मगर यह अब भी सच है कि वे एक कमजोर प्रधानमंत्री ही हैं। सीधी सच्ची बात है कि चुनाव भले ही उनके नेतृत्व में लड़ा गया हो, मगर खुद उनकी उसमें कोई भूमिका नहीं थी। कांग्रेस जीती तो अपने वर्षों पुराने नेटवर्क और सोनिया-राहुल के प्रति आकर्षण की वजह से। पहली बार भी वे अपनी राजनीतिक योग्यता की वजह से प्रधानमंत्री नहीं बने थे, बल्कि सोनिया गांधी की ओर से चयनित किए गए थे। हालांकि तब प्रधानमंत्री बननी तो सोनिया ही थीं, मगर उनके विदेशी मूल की होने के कारण देश में अराजकता पैदा किए जाने का खतरा था। साथ ही कोर्ट में भी चुनौती की पूरी संभावना थी। अत: मजबूरी में सबसे बेहतर विकल्प के रूप में उनका नंबर आ गया। ऐसे में उनकी निष्ठा और उत्तरदायित्व जाहिर तौर पर सोनिया गांधी के प्रति है, न कि देश के प्रति। और इसी कारण अब तक टिके हुए भी हैं। इसी तथ्य से जुड़ा एक पहलु ये है कि अगर सिंह की जगह कोई और भी होता तो उसे अपनी निष्ठा सोनिया के प्रति ही रखनी होती। वह भी कठपुतली रह कर कायम रह सकता था।
इन सब बातों के भीतर जाएं तो सच्चाई ये है कि हालांकि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है, मगर आज भी यहां परिवारवाद कायम है। नेहरू-गांधी परिवार के प्रति अनेक लोगों की निष्ठा है। भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी जरूर विचारधारा के आधार पर गठित हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का देश के कुछ इलाकों में जरूर असर है, मगर हिंदुवाद के नाम पर बनी भाजपा का हिंदुओं के एक बड़े तबके पर असर है। चूंकि देश धर्मनिरपेक्षता की नींव पर टिका है, इस कारण जैसे ही भाजपा अपने तेवर तेज करती है, धर्मनिरपेक्ष लोग कांग्रेस का हाथ थाम लेते हैं। कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष है भी। उस वक्त इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि कांग्रेस परिवारवाद पर चल रही है। उसमें नेहरू-गांधी परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले सोनिया-राहुल की ही चलती है।
इसी सिलसिले में भाजपा की चर्चा करें तो वह भी कमोबेश राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की कठपुतली है। भाजपाई और संघी चाहे लाख इंकार करें, मगर भाजपा के सारे महत्वपूर्ण निर्णय संघ ही करता है। अलबत्ता अब एक ऐसा तबका भी धीरे-धीरे उभर रहा है, जो संघ के उतना नियंत्रण में नहीं है। इसी वजह से भाजपा इन दिनों अंतर्संघर्ष से गुजर रही है। फिर भी मोटे तौर पर नियंत्रण संघ का ही है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

पूर्णतः असहमत.
ReplyDeleteमनमोहन के अर्थशास्त्र पर संदेह करने से पहले हमें मनमोहन के इतिहास को दोहरा लेना चाहिए.वीपी सिंह और चंद्रशेखर ने जब देश को कंगाली की कगार पर पहुंचा दिया था तब मनमोहन सिंह इसे उबार कर लाये.पिछले डेढ़ दशकों में प्रत्येक सत्तारूढ़ दल ने (चाहे वह दक्षिणपंथी होने का ढोंग करे या समाजवादी) मनमोहन की अर्थनीतियों को ही लागू किया.
मनमोहन ही थे जिनकी अर्थनीति के कारण वैश्विक मंदी के दौर में भी हिन्दुस्तान की दशा गंभीर नहीं हुई.मनमोहन ने परमाणु करार क्या किया कौंग्रेस नेतृत्व ने उनके समर्थन में अपनी सरकार दांव पर लगा दी (याद करें विश्वास मत).
विश्व व्यापार संगठन,अर्थ सम्मिट और जी-८ की बैठकों में मनमोहन ने जिस तरह विकसित देशों की शोषण आधारित नीतियों के विरोध में 'विकासशील और अविकसित देशों का नेतृत्व किया वह अभूतपूर्व है, वर्ना अटल तो ऐसी बैठकों में सिर झुकाकर जाते थे और घुटने का ऑपरेशन कराके लौट आते थे.
मनमोहन की वित्त नीतियों को जिस तरह आँख मूंदकर कौंग्रेस नेतृत्व ने माना है उस हिसाब से आपको फिर से विश्लेषण करना चाहिए कि कौन किसकी कठपुतली है.
महंगाई फिलहाल वैश्विक समस्या है,आपने पडोसी देशों में महंगाई का जायजा भी जरूर लिया होगा और ज़रा उनकी तुलना हमसे कर लें तो तस्वीर और स्पष्ट हो जायेगी.चीन और ब्राज़ील जैसे देशों में भी खाद्य स्फीति डबल डिजिट में हैं.मनमोहन सरकार ने जिस तत्परता से मॉनेटरी और एडमिनिस्ट्रेटिव मेज़र्स लिए हैं उससे महंगाई पर शीघ्र ही काबू पाया जा सकेगा.
हमारा देश भाषणबाज नेताओं को ज्यादा पसंद करता है,पहली बार हमें ऐसा व्यक्ति मिला है जो बोलता नहीं पर काम करता है तो ये बात हमारे गले उतर नहीं रही है.यही विद्वानों की पहचान है कि वो कम ही बोलते हैं, खाली बर्तन ज्यादा बजते हैं.इसलिए मनमोहन के कम बोलने को उनकी कमजोरी कतई नहीं समझना चाहिए.
रही बात भ्रष्टाचार की तो जितनी सरकारों को मैंने देखा है,उसमे सिर्फ मनमोहन सरकार है जो अपने भ्रष्ट मंत्रियों को इस्तीफ़ा देने और पर जेल तक भेजने में किसी प्रकार का संकोच नहीं दिखा रही.इसलिए मेरा विश्वास इस सरकार पर और बढ़ा है.
वर्ना याद कीजिये फीलगुड के वो दिन जब कैमरे में भ्रष्ट लोग पकडाए जाते थे और तहलका के ऑफिस में तोड़फोड़ मचाई जाती थी और पत्रकारों को सरे आम पीटा जाता था.नेता सरे आम पैसे को खुदा बताते थे और हमारे लंगड़े प्रधानमंत्री गठबंधन धर्म की मजबूरियाँ गिनाते थे.गठबंधन की आड़ ले लेकर बीजेपी ने अपने मेनिफेस्टो में दर्शाया हुआ एक भी काम ६ साल के कार्यकाल में नहीं किया,इस हिसाब से सबसे कमजोर और मजबूर प्रधानमन्त्री तो अटल ही रहे हैं.
और कठपुतली की बात आडवाणी क्या करेंगे जनाब.अजी छोडिये! जिस आदमी को जिन्ना की प्रशंसा की वजह से अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने के लिए आरएसएस ने मजबूर कर दिया हो वो दुसरे को कठपुतली बताये,इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या हो सकता है.