15.7.11

"गुरु महिमा".....(सद्गुरुओं का सान्निध्य)

"गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥"
गुरू वंदना के लिए बहुत ही प्रसिद्ध यह स्तुति शिष्य के लिए बड़ा प्यारा है तथा इस वंदना का अपने समझ से मैने अर्थ एवं विवेचना किया है,जो मेरे जीवन में अनूभुत है।
-:गुरु स्तुति:-
 "अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किञ्चित् सचराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       सर्वश्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुजः।वेदान्ताम्बुज सूर्याय तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       चैतन्य शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निञ्जनः।बिन्दु नाद कलातीतःतस्मै श्री गुरवे नमः॥
       ज्ञानशक्ति समारूढःतत्त्व माला विभूषितम्।भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       अनेक जन्म सम्प्राप्त कर्म बन्ध विदाहिने।आत्मज्ञान प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       शोषणं भव सिन्धोश्च ज्ञापनं सार संपदः।गुरोर्पादोदकं सम्यक् तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       न गुरोरधिकं त्तत्वं न गुरोरधिकं तपः।तत्त्व ज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोर्पदम् ।मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा॥
      ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम्॥
      एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तन्नमामि॥
       अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
      ध्यानं सत्यं पूजा सत्यं सत्यं देवो निरञ्जनम्।गुरिर्वाक्यं सदा सत्यं सत्यं देव उमापतिः॥"
     -:अर्थ और विवेचना:-          
इस गुरू वंदना में गुरू के स्वरूप,शक्ति,सृजन और महत्व का सूक्ष्म रहस्य छिपा हैं।गुरू,ब्रह्मा है,गुरू विष्णु है,गुरूदेव महेश्वर है।गुरू साक्षात परम ब्रह्म है,उनको नमस्कार है।गुरू ब्रह्मा क्यों है?कारण कई जन्मों के बुरे संस्कारों से हमारे अन्दर बहुत सा विकार पैदा हो गया है।हम दैविक मार्ग पर चलेंगे,क्या उसके लिए हमारा शरीर,मन,बुद्धि तैयार है या नहीं।हम उस रास्ते चलेंगे जो सुनने में आसान लगता है लेकिन जब उस पर चलेंगे तो  ऐसा प्रतीत होगा कि बहुत ही कठिन एवं दुर्गम रास्ता है।इस कारण से गुरू को भी ब्रह्मा के जैसे ही हमारे अंदर के विकार और गन्दगी को हटाकर बुद्धि को शुद्ध कर हमारे बिगड़े संस्कार को ठीक करना पड़ता है।यानि साधना,संयम,योग,जप द्वारा गुरू हमे चलने लायक बना देते है।गुरू विष्णु के जैसे हमारा पालन करेंगे वरना हम भौतिक कष्ट से मर्माहत होकर साधना क्या कर पायेंगे।कोइ भी साधक या संत हो भले ही वो त्यागी हो फिर भी जरूरत की चीज मिल जाये और किसी के सामने शर्म से सिर झुकाकर भिक्षा या दान न मांगना पड़े।इसके लिए गुरू बिष्णु जैसा बनकर साधना,मंत्र,तंत्र द्वारा या वर,आशिर्वाद देकर उस लायक बना देते है कि सब कुछ स्वतः प्राप्त होता रहे।गुरू विष्णु के समान है जब चाहे भक्त,साधक को पुष्ट बना दें ताकि उसे साधना मार्ग में कभी भी भौतिक विघ्न न सताये।गुरू महेश्वर यानि शिव है जिनके पास सारी शक्तियां विद्यमान है परन्तु दाता होते हुए भी कोई दिखावा नहीं है।वो सबका मालिक है।गुरू का यह रूप सदाशिव सदगुरू बनकर साधक और भक्त को दिव्य शक्ति प्रदान करवाते है।यहाँ जो भी करते हैं,गुरू ही करते है।कारण कैसी साधना,कौन सा मंत्र या क्या करना है यह गुरू कृपा से ही प्रदान होती है।ये अपने शिष्य को जगत के सारे रहस्य से परिचित कराके स्वयं और शक्ति की लीला का साक्षात्कार कराने के साथ ही आत्म दर्शन द्वारा साकार परमात्मा के परम ब्रह्म का ज्ञान कराते है।साकार,निराकार सब कुछ समझ में आ जाता हैं और अंत में जो बचता है वही सबका मालिक एक है,जो साईबाबा कहते है।
"श्री स्वामी जी"


-:जीवन प्रसंग:-
इस वंदना का अर्थ २५ वर्ष पहले समझ में न आता था।लेकिन बचपन में अपने पिताजी की बात जो अक्सर मेरे बारे में कहते थे कि इस पर पूर्व संस्कार के कारण माता की कृपा रही है।जीवन के २२वें वर्ष में ही मुझे किसी दिव्य गुरू के लिए व्याकुलता बढ गई।कितने छोटे बड़े साधको से मिला परन्तु किसी पर वह विश्वास नहीं जग पाया।बचपन से एक बात मेरे अंदर रही है कभी भी गलत चीज,गलत लोग,गलत खानपान मुझपर सूट ही नहीं करते है।यही कारण था कि लोगों से सुनकर या पत्रिका पढ़कर किसी अमुक गुरु से प्रभावित होकर उनके पास गया जरूर लेकिन जाते ही मुझे बेचैनी होती और मैं समझ जाता ये मेरे गुरू नहीं है।बचपन से हमेशा मुझे दिव्य स्वप्न आते,पर क्या मतलब है इसका समझ नहीं पाता।फिर दुखी होकर एक दिन शिव का जप करने बैठा इस संकल्प के साथ की या तो गुरू मिलेंगे या प्राण जायेगी आज मेरी।ऐसी व्याकुलता की स्थिती में शिव ने मुझे दर्शन दिया पर वह ध्यानावस्था में था या जाग्रत पता नहीं साथ ही दीक्षा भी दिये और आगे की घटना का दृश्य दिखाया।जब बचपन में हनुमत पूजन करता तो मन बड़ा प्रसन्न रहता लेकिन एक बार बहुत बीमार होने के बाद हनुमत पूजन छूट गया।बाद में निरंतर माता का बृहद पुजन करता रहा फिर भी संकट आती रही।तभी मुझे एक दिव्य स्त्री साधिका जो संन्यासनी थी से भेंट हो गई।उन्होनें देखते ही बताया कि तुम्हारे कुलदेव है हनुमान जी और उनकी विशेष कृपा है तुमपर लेकिन उन्हें छोड़ माता का पूजन तुम्हें कैसे लाभ देगा।तुम पहले हनुमान जी को पकड़ो वही तुम्हारे परम सहायक है,आगे किस रास्ते कैसे बढना है ये हनुमान जी जानते है।मैं साधिका की बात को समझ हनुमान जी की शरण में गया और मेरा जीवन ही बदल गया।


"श्री सीताराम जी"
हनुमत कृपा से उसी समय माँ के परम भक्त श्री दुर्गा प्रसाद जी मिले।वे ज्योतिष के प्रकांड विद्वान भी थे,जिन्होने मुझे ज्योतिष का अदभुत ज्ञान प्रदान किया साथ ही मेरे अन्दर की बेचैनी को समझते हुये मुझे एक परम शाक्त काली उपासक से मिलवाये।उन्हें देखते ही शिव जी के गोपनीय आदेश का स्मरण हो आया और मैं समझ गया कि ये गुरुजी ही ब्रह्मा के जैसे मेरा शोधन करेंगे,मेरे विकार नष्ट कर मुझे आगे बढायेंगे।११ वर्ष तक औघड़ गुरू जी के सान्निध्य में रहते हुये मैने साधना के साथ माँ की कितनी लीलाएँ देखी,याद कर मन भर आता हैं।उसी बीच दतिया गुरू जी "श्री स्वामी जी" का दर्शन स्वप्न में अक्सर होता रहा।औघड़ गुरू जी के समाधि के एक वर्ष पूर्व ही माता ने मुझे स्वप्न में उस रहस्य से परिचय करवाया कि "गुरू जी समाधि ले रहे है।"मन भर गया मेरा धड़कन बढने लगा यह सोचकर कि गुरू जी के बिना कैसे रह पाउँगा मै।मैने औघड़ गुरू जी से कहा "गुरूदेव क्या आप जाने के तैयारी में है" उस समय उनके समक्ष बहुत से शिष्य लोग भी बैठे थे।मेरा बात सुन गुरूजी बोले देखो जाना तो है ही परन्तु तुम मत घबड़ाओ माँ तेरे साथ है,यह बात सुन सारे शिष्य लोग मुझपर नाराज हो गये कि मैं गुरू देव की मृत्यु की कामना कर रहा हूँ।आठ माह बाद एक रोज गुरूदेव नें मुझे बुलाकर कहा देखो माँ ने कहा है कि तुम सात्वीक आचार के साथ ही पूजन करना तथा उसी समय गुरूदेव ने अपनी सारी साधनायें,तंत्र प्रयोग,मंत्र साधना सभी का एक एक कर मुझे दीक्षा प्रदान किया और कहा मेरे बाद माँ का पूजन,देखभाल करना।मैं तो भावविभोर हो रोने लगा और ठीक चार माह बाद गुरूजी ने समाधि ले ली।मैं तो जैसे पागल हो गया,मुझे इतना सदमा लगा कि मैं हमेशा शोक में डूबा रहता,कैसे रह पाउँगा गुरूदेव आपके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता।गुरूदेव के शिष्य लोग तो पहले से ही मुझसे नाराज रहते थे,अब खुल कर मेरा विरोध करने लगे।तब गुरूजी ने स्वप्न के माध्यम से बहुत से शिष्य लोगों को यह बताया "देखो माँ का पूजन राज शिवम ही करेगा यह माँ का आदेश है,इसे मान लो तथा तुम सब उससे बैर भाव छोड़ सहायक बनो।" इस स्वप्न के बाद भी किसी ने गुरू जी की बात नहीं मानी।तभी एक रात गुरूजी स्वप्न में मुझे माँ के पास ले गये और बोले देखो कोई तुम्हें चैन से नहीं रहने देंगा इसलिए माँ की प्रतिष्ठा तुम अपने यहाँ करो।मैं डर गया तो वे बोले "कि पागल माँ के लिए रोते हो,डर कैसा माँ की ईच्छा है,और गुरू जी माँ के प्रतिमा को मेरे यहाँ पूजा रूम में रखते हुये बोले कि शीघ्र ही माता का कही प्रतिष्ठा करो।" मैं पूजा रूम में गया तो देखता हूँ माँ साक्षात खड़ी हैं,मैंने कुछ कहा,माँ ने भी कुछ कहा फिर मैंने कहा "माँ! तुम यही रहो मैं तुम्हारी प्रतिष्ठा करने का यत्न करता हूँ।" कहाँ जाऊं कैसे माँ का प्रतिष्ठा करूं मैं तो खुद किराये के मकान में हूँ।यह सोचता हुआ बाहर आकर मैं रोने लगा कि गुरूजी घर में बैठे है और माँ पूजा रूम में पर धन कहाँ से लाऊँ।उसी रात स्वप्न में मुझे एक गुफा का दरवाजा दिखाई दिया।किसी ने आकर मुझसे कहा की अन्दर शिरडी साईबाबा है,उन से भेंट करो।मैं अन्दर गया ३५,४० की उम्र में साई सफेद धोती,कुर्ता में एक बड़े से पत्थर के शिला पर बैठे है।मैं उन्हें देखते ही रोने लगा और कहने लगा "कि बड़ा नाम सुना हैं आपका,कैसे माँ का प्रतिष्ठा करूँ बाबा,मैंने तो कभी आपका पूजन भी नहीं किया साईं,बताईये कहाँ जाऊं।" तब साई मेरे सिर पर हाथ रख कुछ गोपनीय वचन बोले तथा कुछ दिव्य समान भी दिये साथ ही बोले चिन्ता न करो माँ का प्रतिष्ठा मैं करवा दूँगा,सारी व्यवस्था मैं कर दूँगा,मैं गुफा से बाहर आया तो एक १२,१३ वर्ष की कन्या नें कहा आपका खुद का जो जमीन हैं न,वही माँ का प्रतिष्ठा करे।तभी नींद टूट गई।मैने गुरू के विष्णु रूप साईंबाबा का कृपा देखा।स्वप्न क्या यह पूरा हो गया और देखते ही मेरे जमीन पर निर्माण कार्य भी शुरू हो गया।तभी पुनः दतिया के
"श्रीस्वामी" ने आदेश दिया "आओ दीक्षा दूँ तुम्हें।" मैं दतिया गया पता चला नवरात्र में दीक्षा होगा परन्तु मेरा दीक्षा निवेदन पत्र १० माह पहले का है जबकि चार,पाँच वर्षो वालों का भी दीक्षा नहीं हो पाया है।उस समय मैं थोड़ा आलस से टाल कर कर वापस घर आ गया।
"श्री विष्णुकान्त मुरिया जी"


श्री स्वामी साक्षात शिव है,यह मैं जान गया था तभी एक ऐसा घटना घटा जिससे की मैं डर गया और उस संकट के निवारण के लिए स्वामी से प्रार्थना की "गुरूदेव मैं इसी नवरात्र में आऊंगा दतिया,कृपा कर संकट से मुक्त किजिए" और मानों चमत्कार हो गया और संकट पल भर में छूमंतर हो गया।मैने शिव की लीला भी देखी कि कैसे शिष्य को आगे के मार्ग पर बढाने के लिए गुरू को कठोर बनना पड़ता है,यही शिव की परम कृपा,एवं करूणा है।इस घटना के पिछे मेरी प्यारी काली भुवनेश्वरी माँ का मेरे लिए विशेष कृपा,स्नेह भी छिपा हुआ था।मै दतिया नवरात्र में पहुँच गया,वहाँ जाकर श्रीस्वामी के पास रो पड़ा,गुरूदेव आ गया हूँ दीक्षा दे।फिर किसी के कहने पर "श्रीविष्णु कान्त मुरिया जी" से मिला और उनकी कृपा मिली और मुझे उसी दिन दीक्षा प्राप्त हो गयी।यह सब स्वामी कृपा से संभव हो सका।श्री मुरिया जी को प्रथम बार देखा तो पाँच वर्ष पूर्व का घटना याद आ गया जब मैंने देखा था कि गुरूदेव के प्रिय शिष्य मुझे उपदेश दे रहे थे। ये परम दयालु तथा अति विशिष्ट साधक है,इन्होने मुझे जो स्नेह दिया,मार्गदर्शन किया वह मैं स्मरण कर भाव विह्वल हो जाता हूँ।


मैं शुरू से बहुत अनुशासित हूँ तथा गुरू कृपा मैंने जीवन में इतनी देखी है,कि लिखूँ तो आजीवन लिखता ही रह जाऊँगा।जीवन में प्रथम गुरू कृपा मैने हनुमान जी का देखा,मेरे जीवन को बनाने वाले हनुमान जी ही है,उनकी मुझपर सदा कृपा रही।कारण शिव मंत्र मुझे हनुमान जी ही प्रदान किये।शिव आये तो औघड़ गुरू जी श्री सीताराम जी मिले फिर साईंबाबा जो साक्षात ब्रह्मा,विष्णु,महेश ही है,यही श्री दत्तात्रेय,स्वामी समर्थ भी है,इनकी कृपा मिली फिर आदि गुरू शिव जो पहले भी मिले और स्वामी के रूप में दतिया बुला मेरा जीवन ही बदल डाला।क्या कहूँ मैं, शब्द नहीं है जो पूरी बात बता सकूँ।
-:आदर्श शिष्य धर्म:-
शिष्य वही है जो गुरू के पास अपने को हर से झुका दे पूरी श्रद्धा से तभी गुरू शिष्य के अन्तर्मन मे प्रवेश कर क्रिया और कृपा कर पायेंगे।शिष्य बनना बहुत मुश्किल है,बड़े बड़े भक्त भी गुरू के समीप जाते है,गुरू कृपा से दीक्षा भी मिल जाती है परन्तु गुरू पर पूर्ण आस्था कभी नहीं बना पाते।दीक्षा लेकर भी शिष्य सरल चित न होकर अंहकारी बन जाये तो अध्यात्मिक धरातल पर कभी भी आगे नहीं बढ सकता।आज गुरू की कमी नहीं है,तथा शिष्य भी बहुत मिल जाते है लेकिन जो सिद्ध गुरू है वहाँ निम्न स्तरीय लोग पहुँच ही नहीं पाते,अगर दैव योग से पहुँच जाये तो उन्हें समझ नहीं पाते,और दैव कृपा से थोड़ा समझ में आया भी
तो गुरू की एक परिक्षा से ही भाग जाते है,और जाकर गुरू के बारे में अनाप,शनाप बोलते हैं ऐसे लोग क्या कभी शिष्य बन पायेंगे। गुरू से एकाध मंत्र मिल जाने के बाद लोग स्वयं गुरू बन जाते है।गुरू का रहस्य शिष्य ही अनुभव कर पाता है।शिष्य के मानस में तो गुरू,हृद्वय तथा आज्ञा चक्र में हमेशा विराजमान है।गुरू,शिव है तथा शिव ही एकमात्र गुरू हैं।इसी कारण गुरू को परम ब्रह्म कहा गया है यानि गुरू आदि,अंत दोनों जगह विराजमान है।यह लेख मैं अपने गुरूदेवों के प्रसन्नार्थ लिख रहा हूँ कारण वे सभी बड़े पुण्यात्मा है जो अपने गुरू के प्रति समर्पित है।गणेश क्यों प्रथम पूजनीय है,इसलिये कि जगत गुरू माता पिता का ही परिक्रमा कर यह बोध कराते है कि जीवन में माता पिता ही प्रथम गुरू है,भूल से भी माता पिता का अनादर नहीं करना चाहिए नहीं तो अध्यात्मिक यात्रा में सफलता मिलना मुश्किल हो जाता है।गुरू जैसे भी हो अगर हम सरलचित हैं,तो गुरू कृपा का लाभ होता है।आप जिस लायक है,वैसे ही गुरू जीवन में मिल जाते है।कभी कभी ऐसा भी होता है की आप किसी सामान्य गुरू की ही बहुत दिल से सेवा करते है और इसके फलस्वरूप सद्गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है।आपने सुना होगा कि एक गुरू जो शिवभक्त थे उन्होनें अपने शिष्य को शिव मंत्र प्रदान किया था।एक बार शिष्य शिव मंत्र का जाप कर रहा था कि उसी समय गुरू जी आ गये तो शिष्य ने सोचा कि गुरू जी भी शिव के ही भक्त है और अभी मैं शिव पूजन कर रहा हूँ,इस समय पूजन छोड़ गुरू को प्रणाम क्यों करूँ,जबकि शास्त्र कहता है गुरू के आते सब साधना रोक गुरू की सेवा एवं आज्ञा से चले।इस गलती के कारण शिव प्रकट होकर शिष्य को दण्ड देने जा रहे थे,तो फिर गुरू ने भावमयी दिव्य स्तुति कर शिव के कोप से शिष्य को बचाया।जीवन में जिस भी गुरू से आपको थोड़ा भी अध्यात्मिक लाभ मिला हो वो सभी प्यारे है लेकिन अंहकारी शिष्य को जब सदगुरू मिल जाते है तो वे नीचे के गुरू का अपमान,तथा उन्हें निम्न स्तरीय समझ लेता है इस कारण उसका अध्यात्मिक प्रगति सदगुरू के पास जाकर भी नहीं होता।सदगुरू साक्षात शिव ही है और शिव गुरूओं के गुरु यानि व्यासपीठ पर बैठे जगत गुरू हैं।अगर शिव ने मुझे इतने गुरू नहीं दिये रहते तो क्या मेरा प्रगति होता इस कारण मेरे सभी गुरू शिव जैसे भोलेभाले है जो मुझे आगे बढाने में परम कृपालु रहें।।लोग अपने माता पिता को कष्ट देते है,किसी से प्रेम नही कर सकते अपने अंहकार में गलती करते हुए भी उसे सही समझ लेते है वे सदगुरू के पास जाकर भी क्या पायेंगे।इस कारण आदर्श शिष्य बनने की कोशिश करनी चाहिए तभी गुरू की पुर्ण कृपा होगी।मैने देखा है अच्छे गुरू से दीक्षा लेने के बाद भी लोग अनुशासन भंग करते है तथा और भी गलत कार्य करने लगते है तथा कहते है गुरू जी पर भरोसा और श्रद्धा है,वे सब सम्हाल देंगे,ऐसे शिष्य है आज के।
-:शिक्षा:-
मेरे प्रथम गुरू काली की मूर्ति में भुवनेश्वरी की प्रतिष्ठा किये थे,नाम तारा का लिखे थे और चांदी का श्रीयन्त्र भी साथ रखते और जीवन में लोगो के भीषण संकट से छुटकारा के लिए श्रीबगलामुखी का अनुष्ठान कराते थे।बहुत शिष्य लोग वहाँ थे परन्तु न कभी गुरू पूजन करते न गुरू को सम्पूर्णता से अपना पाते तभी मैं गया था।मैंने गुरू पूजन का भव्य आयोजन रखा और लोगों को यह समझाया कि प्रथम गुरू पूजन करना जरूरी है,कुछ ने माना कुछ ने बिना मन ही मेरे राय से सहमत हुये।पूजन जब शुरू हुआ तो एक एक कर सारे लोग गुरू पूजन करने लगे ,कुछ ने दिल से किया कुछ ने सिर्फ दिखावा ,गुरूजी सब समझते थे,मैं अंतिम में गुरू का भावमयी पूजन शुरू किया तो मैं तो रो ही रहा था,गुरूजी भी रो पड़े,ऐसे भोले थे हमारे प्रथम गुरु "सीताराम जी"।उन्हीं की कृपा रही कि दतिया श्रीस्वामी ने मुझे अपनाया।आज शरीर के रुप में भले वे गुरूजी नहीं हैं परन्तु दिव्य रूप में सभी कुछ करने वाले ये ही है।मैने जीवन में श्रीस्वामी का बहुत बार दिव्य शरीर के रुप में स्वप्न या जाग्रत में दर्शन किया है।आज सभी के साथ जो उपस्थित है वह श्री विष्णुकान्त मुरिया जी,दतिया जो भक्त वत्सल तो है ही साथ ही हमें कोई भी मार्गदर्शन हो वे,दिल से राह दिखाकर हमे कृतार्थ करते है।उनके पास बैठने पर लगता है परम शांति है,इनकी निश्चल मुस्कान से ही हम उर्जावान बन जाते है,इनकी दिव्य एवं रहस्यमय वाणी हमे सोचने और समझने पर विवश करती हैं।एकलव्य के बारे में लोग बात करते है,शिष्य की परकाष्टा है एकलव्य जो गुरू की मूर्ति से भी गुरू तत्व की कृपा तले सब कुछ पा गया और अंत में दोर्णाचार्य ने अंगुठा ही मांग लिया,यहाँ शिष्य एकलव्य को कोई दुख नहीं हुआ कारण वह गुरू तत्व को जानता,समझता था। यह परम श्रेष्ठ शिष्य है,ऐसे ही शिष्य को होना चाहिए लेकिन आज भस्मासुर शिष्य ज्यादा है जो गुरू को राय देंगे,गुरू के समझ को मुर्खता कह उन्हें सिखायेंगे ये शिष्य क्या कभी गुरू सता को समझ पायेंगे।साधक,भक्त जो सच्चे होते है उनकी बुद्धि कम होती ही है,कारण ये लोग हृद्वय प्रधान होते है,इन्हें बुद्धि की बात पूरी समझ में नही आती।ये सभी कुछ अच्छा ही समझते है।श्रीस्वामी साक्षात सिद्ध एवं शिव है उन्हें अस्वस्था में सभी प्रेम बस दवा खिलाते रहे और वे जान बूझ कर खाते रहे,यही गुरू का स्वभाव है,शिव का स्वभाव है।एक बार गुरू कृपा हो जाए तो सभी देव,देवी साधक को दर्शन देते है,मदद करते है तभी तो हनुमान चालीसा का प्रथम दोहा "श्री गुरू चरण....यानि मै अपने मन दर्पण को श्रीगुरू जी की चरण धूली से पवित्र कर श्री रघुवीर जी के यश का गुणगान करता हूँ।" गुरू के बिना किसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता,यह सत्य है,श्रीराम को भी गुरू बनाना पड़ा,साईं,कृष्ण,आद्य शंकराचार्य किसने गुरू नहीं बनाया जबकि वे साक्षात ही जगतगुरू थे।गुरू गोरखनाथ स्वयं शिव है परन्तु उन्होने भी गुरू बनाया फिर दत्तात्रेय तो ब्रह्मा,विष्णु,महेश है और उन्होनें २४ गुरु बनाकर लोगो को शिक्षा दी।बिना गुरू जीव को कुछ भी प्राप्ति संभव नही है।अगर गुरू किसी एक पंथ को ही सच्चा बाकी को गलत कहे वह पूर्ण गुरू नहीं है,गुरू तो सबका मर्म बताकर तुम्हें तुम्हारे मार्ग यानि तुम्हारे लायक कौन मार्ग चाहिए उस पर चला देता है।तभी तो कहा गया है कि "नाना पंथ जगत में निज निज गुण गावें।सबका सार बताकर गुरू मारग लावें॥" यही गुरू कृपा है।

1 comment:

  1. सादर गुरु चरणों में प्रणाम ||
    प्रस्तुति के लिए आभार ||

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