17.7.11

मंत्रीमंडल विस्तार के अर्थ निकालना बहुत कठिन

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से हाल ही किए गए मंत्रीमंडल में एक ओर जहां गुरुदास कामत के इस्तीफे की पेशकश और वीरप्पा मोइली व श्रीकांत जेला की नाराजगी से कांग्रेस के अंदर अंतरविरोध उभर आया है, वहीं विपक्षी दल इस कवायद को बेमानी साबित करने पर तुले हुए हैं। एक ओर जहां सिंह का यह कहना कि यह यूपीए-दो का अंतिम मंत्रिमंडलीय फेरबदल है, यह संकेत दे रहा है कि उनकी कुर्सी को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, लेकिन दूसरी ओर विस्तार में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के वफादारों को तवज्जो मिलने से यह भी साफ है सिंह आज भी कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। हालांकि इस विस्तार से इस तरह कि मीडियाई अटकलों से मुक्ति मिल गई है कि मनमोहन सिंह हटाए जा रहे हैं और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन रहे हैं, लेकिन इस पर यकीन करना कुछ कठिन ही प्रतीत हो रहा है। कुल मिला कर राजनीति के दिग्गज जानकार भी इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर इस विस्तार के क्या-क्या ठीक अर्थ हैं।
यह सही है कि सिंह को हटाए जाने और राहुल की ताजपोशी की अटकलों पर विराम दे कर देश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की दिशा में यह विस्तार काफी महत्वपूर्ण है। चारों ओर से घिरी सरकार के लिए यह संदेश देना जरूरी हो गया था। मगर पीछे के एजेंडे को समझना कठिन हो गया है। वस्तुत: यूपीए-2 की परफोरमेंस कमजोर रहने और विपक्ष की ओर से एक बार फिर मनमोहन सिंह को कमजोर व कठपुतली प्रधानमंत्री करार दिए जाने के कारण यह तय माना जा रहा था कि राहुल के लिए रास्ता बनाने के लिए इस विस्तार में राहुल के काफी चहेतों को स्थान देने की कोशिश की जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दूसरी ओर मनमोहन सिंह की भी व्यक्तिगत इच्छा चली हो, ऐसा भी नहीं दिखाई दे रहा है। केवल सोनिया दरबार की चली है। इसका परिणाम ये है कि विस्तार को सिंह के निस्तेज और अप्रभावी फेरबल के रूप में आंका जा रहा है।
इससे कम से कम ये तो साफ है कि सिंह के निस्तेज चेहरे और नवगठित मंत्रीमंडल के भरोसे तो कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव लडऩा काफी कठिन हो जाएगा। ऐसे में यह कयास अनपेक्षित नहीं होगा कि भले ही सिंह कुछ भी कहें, कांग्रेस राहुल के लिए कोई न कोइ रास्ता तो निकालेगी ही। यह भी साफ है कि ऐसा लुंजपुंज विस्तार गठबंधन की मजबूरी की वजह से नहीं, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक संरचना के चलते हुआ है। मनमोहन सिंह कितने मजबूर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपीए गठबंधन के घटक तृणमूल कांग्रेस से रेल राज्यमंत्री मुकुल राय ने रेल दुर्घटना के स्थल का दौरा करने से इंकार कर दिया। यह बात अलग है कि उनसे अब यह विभाग ले लिया गया है। विभाग बंटवारे से नाराज राज्यमंत्री गुरुदास कामत का इस्तीफा और श्रीकांत जैना का शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आना भी यही इशारा कर रहा है कि सिंह की लीडरशिप में दम नहीं है। वे विवादास्पद मंत्री जयराम रमेश को हटाने की बजाय उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने को मजबूर हुए, भले ही उन्हें पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया हो। अपनी कमजोरियों और असफलताओं को छिपाने के लिए जिस गठबंधन की मजबूरी का सिंह बार-बार हवाला देते रहे, वही मजबूरी अब भी कायम है।  तभी तो द्रमुक से संबंध बेहतर नहीं रह पाने के बावजूद उसके लिए दो सीटें खाली रखी हैं। गठबंधन की मजबूरी का एक और बड़ा सबूत ये कि तृणमूल अध्यक्ष ममता के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद रेल मंत्रालय तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट में जगह दी गई।
हालांकि मंत्रिमंडल को व्यापक कहा जा रहा है, लेकिन इसे अभी अधूरा ही माना जाएगा। इससे सिंह के इस बयान पर यकीन करना कठिन हो गया है कि यह आखिरी विस्तार है। मंत्रिमंडल के बहुचर्चित पुनर्गठन में मनमोहन सिंह ने 'चार बड़ों' वित्त, गृह, रक्षा और विदेश मामले को नहीं छुआ और दूरसंचार तथा नागर विमानन सहित चार मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार भी यथावत रहा। मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करने की कवायद अभी अधूरी इस कारण भी मानी गई है कि कपड़ा और जल संसाधन के अतिरिक्त प्रभार क्रमश: आनंद शर्मा और पीके बंसल को ही दिए गए हैं। शर्मा के पास वाणिज्य एवं उद्योग और बंसल के पास संसदीय मामले पहले से हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दूरसंचार का अतिरिक्त प्रभार संभाले हुए हैं, जबकि प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री वयालार रवि के पास नागर विमानन विभाग का अतिरिक्त प्रभार है। डीएमके के किसी प्रतिनिधि को राजा और मारन के स्थान पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। कुछ विभागों को अतिरिक्त प्रभार के तौर पर रखा गया है ताकि अगर डीएमके अपने प्रतिनिधि भेजना चाहे तो उन्हें मंत्रिमंडल में मुनासिब जगह दी जा सके।
कुल मिला कर ताजा मंत्रिमंडल विस्तार से न तो सरकार कोई संदेश दे पाई है और न ही सिंह की छवि में कोई सुधार हो पाया है। अंतिम बताए जाने के बाद भी विस्तार अधूरा ही है। राहुल के बढ़ते कदमों पर कुछ रोक जरूर दिखाई देती है, मगर वे ठहर जाएंगे और कांग्रेस हाईकमान फिर आगामी चुनाव सिंह के नेतृत्व में ही लड़े जाने  का साहस दिखा पाएगा, इस पर सहसा यकीन नहीं होता। लब्बोलुआब  इस विस्तार के ठीक-ठीक अर्थ निकाल पाना कठिन ही है।
 -तेजवानी गिरधर
tejwanig@gmail.com

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