24.8.11

मक़बूल कहलाने का गुनाहगार हूँ

मक़बूल कहलाने का गुनहगार हूँ मगर
गुमनाम जो रहे तो ग़ज़ब कौन सा किया।

टेबल पे कई जाम थे, अंदाज़ अलग थे
हम को तो ये भी याद नहीं, कौन सा पीया।

चुभ चुभ के उँगलियों पे मेरे सिर्फ लहू था
हमने लिबासे-ज़िन्दगी कुछ इस तरह सीया.

ज्यों रेल की खिड़की से मुसाफिर तके दुनिया
हमने तो ज़िन्दगी को महज़ इस तरह जीया।

मक़बूल दे रहे थे अंगूठी, गले का हार
उसने सभी को छोड़ दिया, सिर्फ दिल लिया।
मृगेन्द्र मक़बूल


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