2.8.11

सबसे बड़ा डंडा खुद का चरित्र है.....क़ानून नहीं ......!!

सबसे बड़ा डंडा खुद का चरित्र है.....क़ानून नहीं ......!!
              हम रोज-ब-रोज तरह-तरह के अपराधों के बारे में पढ़ते हैं,सुनते हैं और साथ ही बड़े लोगों के अपराधों के बारे या अपराधियों को सज़ा देने के लिए तरह-तरह के आयोग या कमीशन बैठाए जाने के बारे सुना करते हैं,मगर बाद में यह भी देखते हैं कि दरअसल कुछ भी होता जाता नहीं है और मैं आपको सच बताता हूँ दोस्तों कि आगे भी कुछ होने जाने को नहीं है या कहूँ कि कभी कुछ होगा ही नहीं...... 
               दोस्तों,ऐसा है कि जब से समाज बना है और अपराध घटने शुरू हुए हैं,ठीक तभी से क़ानून नाम की चीज़ भी बनी हुई है,सज़ाएँ भी होती हैं और सदा-सदा लाखों-करोड़ों लोग विश्व-भर की जेलों में ठूंसे भी रहा करते है मगर धरती से अपराध में कोई कमी नहीं आती दिखाई देती,बल्कि यह तो बढ़ते ही जाते हैं....क्या कभी हमने यह सोचा भी है कि क्यूँ....ऐसा क्यूँ होता है.....ऐसा क्यूँ हो रहा है....??और होता ही जाता है !! 
                ऐसा इसलिए है दोस्तों कि आदमी नाम के जीव में उसको अंकुश में रखने वाली लाठी उसके बाहर नहीं बल्कि उसके खुद के भीतर ही हुआ करती है और इस करके जो भी संस्कार वो ग्रहण करता है उसी के अनुसार आचरण किया करता है ,अगर उसका संस्कार उसे कुछ करने (मतलब कोई अपराध करने)से नहीं रोकता तो दुनिया का कोई क़ानून या किसी भी तरह की सज़ा का डर भी उसे वह अपराध करने से नहीं रोक सकता है !!
                  सज़ा का भय अगर किसी को कुछ करने से रोक पाता होता तो दुनिया कब की अपराध से खाली हो गयी होती !!और अगर ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसका अर्थ यही हुआ कि अपराधों के रोकथाम के प्रति हमारी जो सोच है.बल्कि अपराध की प्रवृति की बाबत जो हमारा नजरिया है,उसीमें कोई खोट है और खोट यही है कि हम बजाय अपराध की अपनी मनोवृति को पहचानने के,होने वाले अपराधों की रोकथाम के उपाय करने लग जाते हैं,जो दरअसल कभी भी कारगर सिद्ध नहीं होते और हो भी नहीं सकते क्यूंकि यह हज़ार फीसदी सच है कि अपराध भय से कभी नहीं रुकते क्यूंकि अपराध से होने वाले लाभ की मात्रा हमेशा भय की मात्रा से ज्यादा हुआ करती है तिस पर भी मज़ा यह कि ज्यादातर अपराधी या तो अपने फंसने का भय ही नहीं होता या फिर एन-केन-प्रकारेण छूट जाने का अंदाजा होता है !!  
                    अपराध होने का सबसे बड़ा कारण शिक्षा-व्यवस्था की कमी या उसमें किसी खोट का होना है,बाकी आदमी का खुद का अंतर्मन तो है ही,किसी जमाने में शिक्षा के अंतर्गत नैतिक होने की शिक्षा भी दी जाया करती थी,और शिक्षा का अर्थ रोजगार कभी नहीं रहा था शिक्षा का अर्थ महज यह था कि बच्चा अपना परिवेश-परम्परा -संस्कार और इतिहास सीखे साथ ही सही अर्थों में एक इंसान बने (और यह व्यवस्था संयोगवशात पूर्व की दें ही थी )मगर इस नैतिक-शिक्षा के दरवाज़े कब बच्चों के लिए बंद हो गए और कब शिक्षा का अर्थ महज रोजगार प्राप्ति का एक साधन-भर हो गया !!बढती आबादी और उससे जुड़े रोजगार की कमी ,रोजगार के लिए तरह-तरह की मारामारी और इस मारामारी में जीत हासिल करने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडे और उसी से पैदा हुई एक अपराधिक व्यवस्था !!
                      और इस संचार-युग में मीडिया के द्वारा सूचना प्रसारित करने की तीव्रता ने तरह-तरह के साधनों को हासिल करने की एक ऐसी होड़ को जन्म दिया कि हर साधन का मालिक हर कोई होना चाहने लगा,भले ही उस साधन को हासिल करने का कोई वाजिब साधन उसके पास हो ही नहीं.....हर साधन एक स्टेटस...एक निहायत ही जरूरी चीज़ बन गया सबके लिए.......और इसका अंतिम परिणाम आज यह है कि आदमी के भोजन-वस्त्र से कई-कई गुना का खर्च उसके इन्हीं साधनों को हासिल करने का खर्च है,वरना आज भी अगर घर में आने वाले राशन को देखें तो इसमें होने वाले खर्च का अनुपात बाकी के खर्चों की अपेक्षा मामूली ही प्रतीत होगा !!
                      और इस एक गैर-जरूरी होड़ ने हर आदमी को सदा-सदा के लिए अपराधी बना डाला है,भले ही कोई छोटा हो या कोई बड़ा.....मगर हरेक आदमी अपराधी अवश्य है.....बाकी इसके अलावा किये जाने वाले बड़े घोटाले और बड़े अपराध आदमी की चरित्रहीनता के ही घ्योतक हैं.....आदमी अगर समाज के प्रति-देश-के प्रति या किसी भी "मॉस"के प्रति कोई अपराध करता है तो यही उसका संस्कार है,जिसे कोई क़ानून नहीं बदल सकता....किसी भी देश या समाज में अगर बड़े लोग बड़े-से-बड़ा अपराध करके छुट्टे सांड की तरह घूमा करते होओं,वहां अन्य लोग भी अपराधों की और अग्रसर हुआ करते हैं.....क्यूंकि यह एक तरह की प्रतिक्रिया होती है कि "अरे साले !!तुम खुद तो ऐसा करते हो,और हमें रोकते हो......??तुम्हारी तो ऐसी की तैसी.....!!".....यह नक्सलवाद आदि इसी सब की प्रतिक्रियास्वरूप है......कि ये लोग भी ऐसा हो सोचते हैं......कि सब साले राजनीतिक तो अंधे-लालची-धंधेबाज-कर्रप्ट-और जनता के शोषक हैं......और ये सब साले हम पर शासन करते हैं,जिन्हें चपरासी होने का अधिकार नहीं......!!"तो यह है जनता के एक हिस्से की सोच.....और इस सोच में सच्चाई भी है.....इसलिए इस प्रकार के अपराधों को भी नहीं रोका जा सकता क्यूंकि जो आपकी नज़र में एक अपराध है....वही ऐसा करनेवालों की नज़र में गलत और भ्रष्ट-शासन के खिलाफ एक आवाज़......एक कदम है !!  
                         तो दोस्तों क़ानून कभी भी वो डंडा रहा ही नहीं,जिसने अपराध की कोई रोकथाम की हो.....असल डंडा तो हमारा खुद का चरित्र ही है,और इस चरित्र का अर्थ कहीं-न-कहीं हमारी आत्मा से है......अगर वो हममें कहीं भी है.....तो अपराध रुक सकते हैं.....समाज सुन्दरता से परिपूर्ण हो सकता है......और अगर वो ही नहीं है तो आप क़ानून का डंडा कितना ही क्यूँ ना भांजे जाओ......मगर हवा में लाठी भांजने से सिर्फ अपनी ऊर्जा ही नष्ट होती है.....हासिल कुछ नहीं होता......!!

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