न तोपों से डरे हैं हम, न तलवारों से डरते हैं
तेरी तिरछी नज़र के हम फ़कत वारों से डरते हैं।
तड़प से चाहने वालों की, रौनक उन पे आती है
हम ऐसी नाज़नीनों के तलबगारों से डरते हैं।
बजट के नाम पर काटे जो गर्दन आम जनता की
कचूमर जो निकाले, ऐसी सरकारों से डरते हैं।
अलिफ़ तहज़ीब की जिनके कभी ना पास आई हो
लतीफेबाज़ जो होते, वो फ़नकारों से डरते हैं।
पहले जाल में फांसें, बनाकर बात मीठी जो
कहे मक़बूल हम ऐसे मदगारों से डरते हैं।
मृगेन्द्र मक़बूल
bahut sundar bhavabhivyakti.badhai
ReplyDeleteरहे सब्ज़ाजार,महरे आलमताब भारत वर्ष हमारा
फांसी और वैधानिक स्थिति
वाह मृगेन्द्र जी,
ReplyDeleteक्या बढ़िया लिखा है। बस एसे ही लिखते जाइये।
डॉ.ओम वर्मा
shalini kaushikji aur dr.o.p.vema ji, aap dono ko gazal pasand aai, shukriyaa.
ReplyDeletemrigendra maqbool