8.10.11

वो मजनूँ-सा मिट जाए ऐसा नहीं है

वो मजनूँ-सा मिट जाए ऐसा नहीं है

कि मुझ में मगर अक्से – लैला नहीं हैं

गुज़र ही गई उम्र सुहबत में लेकिन

मेरे दिल में क्या है, वो समझा नहीं है

मेरे वासिते वो जहाँ छोड़ देगा

ये कहने को है, ऐसा होता नहीं है

है इक़रार दिल में और इन्कार लब पर

वो कहता है फिर भी कि झूठा नहीं है

उसे प्यारी लगती है सारी ही दुनिया

मैं सोचूँ वो क्यूँ सिर्फ़ मेरा नहीं है

मैं इक टक उसे ताकती जा रही हूँ

मगर उस ने मुड़ कर भी देखा नहीं है

वो ख़ुशियों में शामिल है मेरी पर उस को

मेरे ग़म से कुछ लेना - देना नहीं है।

फ़रेब उसने अपनों से खाये हैं इसने

उसे मुझ पे भी अब भरोसा नहीं है

हो उस पार कमसिन कि इस पार लग जा

मुहब्बत का दरिया तमाशा नहीं है

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