आखिरकार इंग्लैंड की टीम का भारत का दौरा ख़त्म हो गया और जिस तरीके से भारतीय क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड को क्रिकेट के हर छेत्र में मात दी है। इससे उसने न सिर्फ इंग्लैंड मे मिली हार का बदला लिया बल्कि इंग्लैंड के पूर्व कप्तान नासिर हुसैन और माइकल वॉन के लिए भी सवाल खड़ा कर दिया है की वो अब बताएं कि किस टीम मे गधे हैं?
ये उस क्रिकेट का हाल है जिसमे पहले भारत ने इंग्लैंड मे मुह की खायी और फिर इंग्लैंड ने भारत मे। इसी के साथ सीरीज और हिसाब दोनों बराबर।
लेकिन इसके विपरीत भारतीय राजनीती मे जो क्रिकेटरूपी लोकपाल सीरीज चल रही है उसका अंत शायद अभी हो। जिस तरीके से लोकपाल सीरीज चल रही है। उसमे दिन-प्रतिदिन रोमांच तो बढ़ रहा है लेकिन लोकपाल सीरीज का मुकाम क्या होगा इसके बारे मे न मीडिया के बरखा-प्रभु कुछ कह पा रहे हैं, न सरकार के वकील, न विपक्ष की रामसेना और न ही मार्क्स और लेनिन के भारतीय अनुयायी लेफ्ट। लेफ्ट-राईट दोनों चुप हैं। लेकिन सबसे बुरा हाल दर्शकों का का है जिनके लिए लडाई लड़ी जा रही है और जो इस सीरीज को चुपचाप देखते हुए और फेसबुक पर आत्मव्यथा छापते हुए इसके अंजाम का इंतज़ार या फिर इसे ड्रामा मानते हुए ख़त्म होने का इंतज़ार कर रहे हैं। वो बोल तो रहे हैं लेकिन जितने मुह उतनी बातों के आधार पर यानि जितने चैनल उतनी बहस के आधार पर। लेकिन ये बेचारे अभी तक इसी दुविधा मे हैं की ५० रुपये देकर सरकारी लाइन से छुटकार पाना ठीक है या फिर ५० रुपये न देकर घंटों लाइन मे खड़ा रहना। क्योकि वो ये नहीं समझ पा रहे की भ्रष्टाचार की परिभाषा और सीमा क्या है?
जहाँ तक सीरीज का सवाल है पहले गेंदबाजी करते हुए जिस तरह से टीम अन्ना ने सरकार के सभी वकील बल्लेबाजों और मुह्बाज़ों को चित किया था उससे सरकारी टीम के कोच, मीडिया और विपक्ष सभी हैरान थे। लेफ्ट तो इस दुविधा मे दिख रहा था की भ्रष्टाचार देखें या बंगाल की कुर्सी। बाबा रामदेव की योग टीम भी ये सोचने लगी की जब ये मुट्ठीभर लोग इतनी लोकप्रियता पा सकते हैं तो मेरे पास तो अंधी भक्त सेना है। लेकिन बेचारे महिला के भेष मे ही अपने अन्दर के योगी को बचा सके। जहाँ तक जनता का प्रश्न है तो वह अन्ना की लोकपाल सीरीज को सर्वस्व मानते हुए उसके समर्थन मे सीधे मैदान मे पहुँच गए और जोश से भरी अन्ना टीम ने गैरराजनीतिक होते हुए राजनीतिक क्रिकेट के सभी छेत्र मे बाज़ी मार ली।
ये वो समय था जब मीडिया मे खासकर टीवी मे सिर्फ अन्ना छाए थे। कभी हीरो, कभी योद्धा के रूप मे और सरकार विलेन। विपक्ष तो सिर्फ कुछ मुह्बाज़ों के माध्यम से ही दीखता था। बीजेपी ये सोचते हुए लग रही थी की सिवाए प्रधानमन्त्री के इस्तीफे मांगने के कभी मुद्दों की बात की होती तो शायद जनता उनके साथ होती। मीडिया का बस चलता तो जहन-जहन गांधीजी की तस्वीर है वहां अन्ना की तस्वीर लगा देती।
लेकिन समय के साथ स्थिति बदली तो लय मे दिख रही टीम अन्ना के सारे खिलाडी खुद ही हिटविकेट और रन आउट होने लगे। अरविन्द केजरीवाल, किरण वेदी और कुमार विश्वास जैसे टीम अन्ना के दिग्गज खिलाडी सरकारी फिरकी और फरेब मे फंसने लगे और क्या बोलूं की स्थिति मे अन्ना ने मौन धारण कर लिया।
मीडिया जो पहले टीम अन्ना की हिमायती थी उसी ने टीम अन्ना को सवालों के घेरे मे खड़ा करना शुरू कर दिया। सारे सगे-सम्बन्धी बोरिया-बिस्तर लेकर चलते बने। बेचारे फेसबुकिये भी हवा के साथ चलते हुए टीम अन्ना पर कमेन्ट पोअस्त करने लगे। कुलमिलाकर टीम अन्ना बेकफुट पर आ गयी और डिफेंसिव होकर खेलना शुरू कर दिया।
बेचारे दर्शक दुविधा की स्थिति मे आ गए। बेचारे समझ नहीं पा रहे की किसका साथ दे। कौन देशभक्त है और कौन गद्दार? मीडिया के प्रचार और सरकारी भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए तो वो टीम अन्ना के समर्थन मे सड़कों पर आ गए थे अब टीम अन्ना भी भ्रष्टाचार के घेरे मे आ गयी है तो क्या करे? फिर सडको पर आ जाये? या फिर वो भी सरकारी लाइन से छुटकारा पाने के लिए ५० रुपये सरकारी नौकर को दे दे।
कुल मिलाकर लोकपाल सीरीज अभी अधर मे है। जिसके बारे मे तो कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन दर्शकों को बर्गालेने की कोशिश होती रहेगी ये सुनिश्चित है। कहीं ऐसा न हो कि जो जनता कुछ समय पहले ये सोच रही थी कि ५० रुपये देकर लाइन से छुटकारा पाना सही है या घंटों लाइन मे खड़ा रहना, अब ये सोचना भी छोड़ दे और कहे कि सब साले चोर हैं।
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